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________________ प्रथम आश्वास तान्येव शोकवशवन्धुरखोदुराणि नर्दन्ति संस्थितवतां विरसस्वराणि ॥८९। अपि च- यमभुक्तिसमयपिशुनः समाजसंद्वयव्यसन: 1 जादस्थर्योतोय; परामृतरस्वरः परुरः ।।.०॥ किंच-अचिरण तस्वं यसो भवेत्राजवजवरलेशः । नो चेदिर्थ दशा वो भवितेति चनतिजावतरम् ॥११॥ इतश्च यत्र-अस्सोकशोक शिकाशयशीर्णशईलोकश्चिताचरितयान्धवसन्निधौः । मुप्ता न कस्वयं परिवेदयन्ति बाप्पोष्ट्रतिस्पषितधेगवशा विलापाः ॥१२॥ इतश्च या--कलिकालकायकालाः शोकादिव दहनबान्धवक्षयात् । अङ्गाराः शल्यधराः क्षयक्षपातारकाकाराः ॥१३॥ इतन्त्र यत्र-चन्तोकीलितशुष्ककीकसकलाकीलो हलतालुकाः कण्ठान्तःप्रविलाशल्यशकलोद्रालस्करकुक्षयः । प्रेतप्रान्तपुराणपादपपसत्पत्यप्रदुष्यदृशः प्रभाम्यस्पविशङ्ककृतिकृतिक्षीत्राः शिधा: सोडवाः ॥१४॥ इतन-कथं नामेयमनप्रहपहिललोकलोचनानन्दचन्द्रिका चेतोभवानुचरमानवमनोमटक्रीडाक्तविहारवसतियु पतिरड्डीनान्तरात्मईसा गण्षमण्डलावासबायसपक्षप्रान्तापादितावतसा इदमवस्थान्तरमवासरत ॥ वे ही बाजे मुर्दो से सम्बन्धित हुए शोकाधीन बन्धुओं के नरस शब्दों से उत्कट हुए कुत्सित शब्द कर रहे हैं। IMERIT जहाँ पर ऐसे मदों के बाजों का शब्द होरहा है.जो कठिनप्राय (कानों को फाइनेवाला), यमराज की भोजन-बेला का सूचक और नम-समूह के दुलाने में मातम करतोयाना गवं संसार की क्षणिकता की घोषणा करनेवाला है |1800 जहाँपर मुदों का षाजा मानों-यह सूचित कर रहा है-हे भव्य प्राणियो! आप लोग शीघ्र ही पुण्यकर्म संचय करो, जिसके फलस्वरूप तुम्हें सांसारिक दारूण दुःख न भोगना पड़े, अन्यथा ( यदि शुभ कर्म नहीं करोगे) तो तुम्हारी भी यही दशा ( मृतक अवस्था ) होजायगी REFE जिस श्मशान भूमि पर विशेष शोक-वश शून्य हु। चित्त से नष्ट-शंकावाले गुरू-आ.द के विचार-शून्य) और चिता पर बन्धुजनों को स्थापित करनेवाले लोगों द्वारा ऊँचे स्वर से उच्चारण किये हुए ऐसे रुदनशब्द, जिनका वेग, अश्रुविन्दुओं के प्रकट होने के फलस्वरूप स्थगित होगया है, किसका मन सन्तापित नहीं करते ? अपितु सभी का चित्त सन्तापित करते हैं। शा जिस श्मशान भूमि में ऐसे अनारे हैं, जो हालयों के धारक और प्रलयकाल की रात्रिसंबंधी तारों सरीखे आकार-युक्त हैं एवं जो कलिकाल (दुषमा काल) के स्वरूप समान श्यामवर्ण हैं, इससे ऐसे प्रतीत होते हैं मानों अमिरूप कुटुम्बिजनों के नाश से उत्पन्न हुए शोक से ही श्याम होरहे है ॥९३|| जहाँपर ऐसी शृगालिनियाँ पर्यटन कर रही हैं जिनकी तालु. दांतों में कीलित (क्षुब्ध ) शुष्क ( मांस-रहित ) स्थिखंडरूप कीलों द्वारा विदारण की जारही हैं। जिनका उदर कण्ठ के मध्य प्रविष्ट हुए हड्डी के टुकड़े की वमन करने से कम्पित होरहा है। जिनके नेत्र मुर्दो के प्रान्तभाग पर स्थित हुए जीर्णवृक्षों से गिरते हुए पत्तों से विकृत होरहे हैं और जो निर्भयतापूर्वक फेरकार करने में मत्त होते हुए गर्यसहित हूँ' ॥६४| जहाँ पर एक स्थान पर काल-कवलित ५ श्मशान भूमि पर पड़ी हुई एक स्त्री को देखकर प्रस्तुत आचार्य श्री ने निम्नप्रकार विचार किया यह नवयुक्ती स्त्री, जो कि जीवित अवस्था में कामदेवरूप पिशाच से ध्याकुलित हुए मानषों के नेत्रों को उसप्रकार बानान्दत करती थी जिसप्रकार चन्द्र-ज्योत्स्ना (नौवनी) नेत्रों को मानन्दित करती है, और जो कामदेष के वास मानकों के मनरूप बन्दर के क्रीडावन में विहार करने की निवास भूमि थी, वही अब जिसका आत्मारूप हंस उड़ गया है व जिसका कर्णपूर गालों पर स्थित हुए काकपंखों के अप्रभागों से रचा गया है, किस प्रकार से प्रत्यक्ष देखी हुई इस मृतक दशा को प्राप्त हुई है? १. जाति-अलंकार व मधुमाधवौछन्द। २. रूपकालंकार व आर्याछन्द । ३. उपमालंकार र आशिन्द । ४. आक्षेपालंकार व वसन्ततिलकाछन्द । ५. उत्प्रेक्षालंकार । ६. जाति-अलंकार व शार्दूलविक्रीडित छन्द । ५. रूपकालंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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