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________________ + ONE ६२ यशास्तलकचम्पूकाव्ये यत्र च--श्येनकुलं वृक्कुल द्रोणकुलं वकुलमण्डनाहीतम् । शवपिशिताशवशादिवि भुवि च समाकुल पुरतः ॥४॥ इसक्र-वाघाससमोसकीकसरसवावोस्पथाः पादपाः प्रेतोपान्तफ्तस्पततिापरुषप्रायः प्रदेशा दिशः। एते च प्रबलानिलयश्रयनशाच्छीच्छखाः सर्गतः संसर्पन्ति जरत्कोतरुचयो धूमाश्रिताचक्रजाः ॥८६॥ इतञ्च यत्र-कालाग्निरुद्रनिटिलेक्षयदुनिरीक्षाः कीनाशहामतवाहविरुक्षयीक्षाः ।। दाहाबपुःस्फुटवस्थिमध्यप्रारब्धशब्दकठिना दहनाश्रितानाम् ॥८६॥ इतश्च यत्र-सर्वदेहमृतभस्मनिकायः प्रेतचीवरकरालितकारः । कन्दलोर वणवपुः पवमानः क्रीडति प्रमधनाथसमानः ।।८।। कि च-भ्रश्यकीरणवशी शिरोजसास कुभ्यस्कोवस्करहतप्रचारः । दग्धार्धदेवमृतकाग्निमयप्रबन्धो बातः करोति ककुभोशुभगम्भबन्धाः ॥८८॥ इतश्च यत्र-यान्युत्सवेषु कृतिनां कृतमालानि वाद्यानि मोदिजनगयनिरर्गलानि । जिसके एक पार्श्व भाग में आकाश और पृथिवी मण्डल पर पाज, उलूक व काक पक्षियों का झुण्ड, कुत्तों के समूह की परस्पर लड़ाई होने से भयभीय हुआ मुर्दो के मांस भक्षण की पराधीनता-वश किंकर्तव्यविमूढ़ था ८४|| जिसके एक पाश्वभाग में से वृक्ष वर्तमान थे, जो कि प्रहण कीहुई मांस-साइत हाड्डयों के रस-साय ( चूने ) से मार्ग-हीन थे। अर्थात्-जिनके नीचे से गमन करना अशक्य था एवं जिनकी उपारतन शाखा प्रचण्ड वायु के आश्रय-वश टूट रही थीं। इसीप्रकार जिस श्मशान-भाम के दिशायों के स्थान मदों के समीप आए हुए पक्षियों से कठोर प्राय थे और जिसके एक पार्श्व-भाग में चिताओं ( "मुदो की अाम-समूहों) से उत्पन्न हुए, प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले धूम अत्यन्त बुद्ध कबूतरों की कान्ति के धारक हात हुए सवेत्र अच्छी तरह से फेल रहे थे ।।५।। जिस श्मशान भूमि के एक पार्थ भाग में एसी चिताओं का आनयाँ थी, जो उसप्रकार देखने के लिए अशक्य थीं जिसप्रकार प्रलयकालीन श्री महादेव के ललाट पट्ट का नेत्र दखने के लिए अशक्य होता है और जिनका दर्शन उसप्रकार अत्यंत निर्दय था ।जसप्रकार यमराज की होमाग्नि का दर्शन विशेष निर्दय होता है। इसीप्रकार जो चिता का आनयाँ ऐसे भयानक शब्दों से काठन ( कानों को फाड़ने वाली ) थीं, जो कि भस्म करने से चूं ते हुए भुओं के शरीरों की टूटती हुई हड्डियों के मध्य भाग से बेग पूर्वक उत्पन्न हुए थे ||६|| जिस श्मशान भूमि के एक पार्श्व भाग में ऐसी वायु का संचार होरहा था, जो श्री महादेव सरीखी थी। अर्थात्जिसप्रकार श्री महादेव अपने समस्त शरीर पर भस्म-समूह आरोपित (स्थापित) करते हैं उसीप्रकार श्मशानयाय ने भी अपने समस्त शरीर पर भस्म-पशि आरापित की थी और जिसकी देह उसप्रकार मों के कफ्फनों से रुद्र ( भयानक ) कीगई थी जिसप्रकार श्रीमहादेव का शरीर मुदों के वस्त्रों से रुद्र होता है और जिसका शरीर कन्दलों ( कपालों) से उसप्रकार व्याप्त था, जिसप्रकार श्रीमहादेव का शरीर कन्दलों (मृगचर्मों) से व्याप्त होता है." ।।४] जिस श्मशान भूमि में ऐसी वायु दिशाओं को दुर्गन्धित करती है, जिसके धन, टूटकर गिरते हुए शरीरोयाले मुर्दो के टूटकर गिरे हुए केश ही थे। जिसका प्रचार दुर्गन्धित मुदों के शरीरसम्बन्धी करसों ( हड्डी-पंजरों) द्वारा नष्ट कर दिया गया था एवं जिसका प्रबन्ध (अविच्छिन्नता) दुग्ध हुए अर्ध शरीरवाले मुदों की अग्नि द्वारा निष्पन्न हुआ था | जिस श्मशान भूमि के एक पाश्र्य भाग में, जो बाजे पूर्व में पुत्रजन्म व विवाहाद उत्सवों में इषित हुए लोगों के प्रतिबन्ध ( रुकावट ) रहित गानों से युक्त हुए पुण्यवानों के लिए मङ्गलीक होते थे, १. यथासंख्यालंकार। २. समुच्च्यालंकार । ३. उपमालंकार व धसन्ततिलका छन्द । ४. अपमालंकार स्वागताछन्द, तदुर्फ-स्वागतेति रनभादगुरुयुग्मम्' । ५.रूपकालंकार व मधुमाधवीछन्द ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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