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________________ तृतीय श्रावासः ३६३ इति विजयजैत्रायुधमागधाग्योधितालधर्मो महानधर्मी नित्य तथा-इंसावलीहिगुणकेतुसिक्षांशुकधी: पावसरमणीरमणीयसारः। प्रासाबसारितसुधायुतिदीसदिको दीपोत्सवस्सब तनोतु मुदं महीश ॥४६॥ धूतोन्मावितकामिनी जिवतप्राणेशवादरकटः क्रीडद्वारविलासिनोजनमत्रपाधिकल्पोमटा । बातोपवनि मङ्गलारबभाज्याम्मिताशामुखः प्रीति पूर्णमनोरथस्य भवतः पुष्यात् प्रदीपोत्सवः ॥४६४ ॥ भाभान्त्यस्खशिखामविट पाखिदीपावलीप्तितः पुरसौधबन्धाः । प्रत्यङ्गसंगतमहौषधिदीसदेहास्वा सेवितुं कुलगगा व दत्तयात्राः ॥४६॥ इति सूतपूरचितासरा दीपोत्सवश्चियं चानुभूय । यावन्ति भुवि शवाणि तेषां श्रेष्ठतरं धनुः । धनुर्ण गोदर सानि न तेषां गिरी धनुः ॥४६६॥ इत्यायुधसिद्धान्तमध्यासादितसिंहनादानुर्वेदानुपश्चत्य समाश्रितशराभ्यासभूमिः। कर्मः पाताकमूल भयति मणिपतिः पिण्डते न्यञ्चमः सर्वरयुधिरन्नाण्यपि क्धति ककुष्मिपुरा: सावसानि । गान्धसेऽम्भोधयोऽपि क्षिसितलविरसशोषयस्ते महोश ज्यारोपासनासीदवारटनिभरभ्रस्यभूगोलकाले ॥४६॥ अब 'सूतसूक्त' नामके स्तुतिपाठक द्वारा की जानेवाली 'दीपोत्सव' ( दीपमालिका पर्व ) को शोभा का निरूपण करते हैं हे राजन् ! ऐसा 'दीपोत्सव' आपका हर्ष विस्तारित करे, जिसमें इंस-श्रेणी द्वारा दुगुने शुभ्र हुए घजाओं के शुभ्र पत्रों की शोभा पाई जाती है और जिसमें कमलों के कर्णपूरों से मण्डित हुई रमणियों से रमणीय ( मनोज्ञ) द्रव्य वर्तमान है एवं जिसमें महलों पर पोती हुई सुधा-( चूने) कान्ति से दशों दिशाएँ कान्ति-यक्त होरही है। ॥ ४६३ ॥ हे राजन् ! बह जगत्प्रसिद्ध ऐसा प्रदीपोत्सव आपका हर्षे पुष्ट करे, जो जुआ खेलने में उत्कट अभिमान को प्राप्त हुई कामिनियों द्वारा पूर्व में जीते गए बाद में वन व हस्त-ग्रहणपूर्वक पकड़े गए अपने अपने पतियों के चाटुकारों (मिध्यास्सुतियों) से उत्कर्ष को प्राप्त होरहा है और जो, कीड़ा काती हुई वेश्याओं के समूह में होनेवाले ङ्गारविशेषों से उन्मत्त होरहा है एवं जहाँपर बाजों की ध्वनियों के माङ्गलिक शब्द-समूह द्वारा दशों दिशाओं के अप्रभाग व्याप्त किए गए हैं। ॥४६४ ॥हे राजन् ! ऐसे नगरवर्ती राजमहल-समूह शोभायमान होरहे हैं, जो कि ऊँचे शिखरोंवाले उसस्थानविशेषों के भिति-भागों पर स्थापित की हुई दीपक श्रेणियों की कान्ति धारण करते हुए ऐसे मालूम पड़ते हैं-मानों-आपकी सेवा-निमित्त विहार करनेयाले व प्रत्येक अङ्गों पर मिली हुई महौषधियों (ज्योतिष्मती-आदि वेलों ) से दीनिमान अम के धारक कुला चल ही हैं। ।। ४६५ ! प्रसङ्गानुबाद -हे मारिदत्त महाराज ! तत्पश्चात् मैंने 'आयुधसिद्धान्तमध्यासादिवसिंहनाद! ( शस्त्रविद्या के मध्य गर्जना करनेवाले -शस्त्रवेता विद्वानों को ललकारनेवाले ) इस सार्थक नामवाले धनुर्वेदवेत्ता विद्वान् से निम्नप्रकार धनुर्विद्या की विशेष महत्ता श्रवण की, जिसके फलस्वरूप मैंने शराभ्यास-( बाण छोड़ने का अभ्यास ) भुमि प्राप्त करनेशला होकर 'मार्गणमल्ल' नामके स्तुतिपाठक के निम्नप्रकार श्लोक श्रवण करते हुए धनुविद्या का अभ्यास किया। धनुर्वेदविधा की महत्ता--हे राजन ! लोक में जितनी संख्या में शस्त्र पाये जाते हैं, उन सभी में धनुष सर्वश्रेष्ठ है। क्योंकि धनुविधा में निपुणता प्राप्त कर लेने पर उसमें सभी शस्त्र गर्भित * मसारवभवय की जाशरवः' य० । गिरे.३.० । टनभरे भ्रस्टति शोणिमध्ये २० । १. जाति-अलंकार । २. हास्परमप्रधान जाति-अनधार । ३. शानदार 1
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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