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________________ यशस्तिलकचम्यूत्रव्ये मानन्ददुन्दुभिरिव विपणालमानां देवदुहां हमिलनाभिघोषः । त: समाइयविधौ धरणीवराणां पारस्य ते ध्वनिस्य जयटादुदारः ॥४६॥ वामे करें किमु धनुः किमु दक्षिणे वा बाणावलों सपति कोत्र रोज्यताम् । ल्य बियाश्रममवेव तबाहमार्थ शत्रपचमुरुली खलु क करोतु ॥४६९॥ मोशाय ना देस भवत्प्रयुक्ता । चापन पोग्या जगती प्रमातुं प्रसारित सूत्रमिवावमाति ॥४०॥ सर्थ पिपत्र्यतीसविषयं पानुपुखम्मानिस्वास्मास्परतः प्रसर्पति गुणस्पूसेव पाणावली । एवं सापविजृम्भितानि भवतः सण्ययोग्याविधौ धानुर्धगुणं विमुञ्चति मुर्धन्दी न पाण्यं पुन: ॥४.१५ होजाते हैं। अर्थान-सभी शस्त्रों को विद्या समा जाती है (सभी शस्त्रों में निपुणता प्राप्त होजावी है) परन्तु दूसरे शस्त्रों की विद्या में धनुर्विद्या गर्भित नहीं होतो ॥४६६ ।। अथानन्तर हे मारिदत महाराज! मैंने क्या करते हुए धनुर्विद्या का अभ्यास किया? मैंने 'मार्गणमल' नामके स्तुतिपाठक के निम्न प्रकार सुभाषित पचन श्रवण करते हुए धनुर्विद्या का अभ्यास किया । राजन ! जब आपको ऐसा अवसर प्राप्त होता है, जिसमें डोरी को धनुष पर चढ़ाने की संगति से टूटने हुए धनुष के अग्रभाग के भार ( अतिशय ) से भूमण्डल नोचे फँसनेवाला होने लगता है सप कूर्मराज ( पृथिवी-धारक श्रेन कछु ) भयभीत हुआ पृथिवी के आधारभूत मूल का आश्रय लेता है। अर्धाद-उसमें प्रविष्ट हो जाता है और उस कच्छपराज के ऊपर स्थित हुआ शेषनाग, जिसका हजार संख्याशाली फणा मण्डल मुक रहा है, संकुचित हो जाता है एवं पर्वत-छिद्र भी हव होजाते हैं और दिग्गज भयभीत होजाते हैं तथा ममुद्र भी, जिनको तरङ्गों के पृथिवीतल पर सैकड़ों टुकड़े होरहे हैं, लोहन करने लगते है।४६७।। हे राजन ! यह अत्यन्त उन्नत ऐसी आपकी धनुष-ध्वनि ( टंकारशब्द ) सर्वोत्कृष्टरूप से वर्तमान हो. जो स्वगों को हप-दुन्दुभि-सरीखी है एवं जिसका शब्द असुरों का हृदय भान करनेवाला है अथवा असुरों के सृदय भङ्ग करनेवाले शब्द-जैसी है एवं जो राजाओं के बुलाने की विधि में दन है। अर्थात-जिस प्रकार दूत राजाओं को बुलाने में समर्थ होता है जसीप्रकार यह आपको धनुष-ध्वनि भी राजाओं के बुलाने में दून-सरीखा कार्य करती है॥४२॥ हे राजन् ! [ आपके हस्तलाधन के कारण ] यह कोई नहीं जानता कि धनुष अापके पाएँ हस्त पर बर्तमान है ? अथवा दक्षिण हस्त पर? एवं इस बाण छोड़ने के अभ्यास के अवसर पर कौन-सा हस्त यह बाण-श्रेणी कर रहा है? ( छोड़ रहा है। इसप्रकार आपका आश्चर्यजनक बाण छोड़ने का अभ्यास देखकर [ लोक में ] कौन पुरुष निश्चय से आयुधों कर विस्तृत अभ्यास करेगा? अपि तु कोई नहीं करेगा ।। ४६६ ।। हे देव ! आपके द्वारा प्रेरित की हुई वाण-श्रेणी, जिसका शरीर डोरी व वेध्य ( निशाने ) के मध्य लगा हुआ है और जो धनुष से अभ्यस्त है, पृथिवी के नापने-हेन फैलाये हुए मृत-सरीखी सुशोभित होरही है" ॥ ४७० ।। हे राजन् ! आपका लक्ष्य (निशाना ) नेत्रों के अगोचर दरलर ) है और सूत में पिरोई हुई-सी शोभायमान होनेवाली आपकी बारणश्रेणी पुल व अनुपुड्डों ( पाण-अवयव पर वाली तीर की जगह ) के क्रम का अनुकरणपूर्वक लक्ष्य-भेवन करके दममे । लक्ष्य मे दर चली जाती है. इसप्रकार प्रापके धनुर्विद्या-चमत्कार घिद्यमान हैं, इसलिए जर आपकी अभ्यासविधि धनुर्वेदी विद्वानों द्वारा प्रशंसनीय है, नब धनुर्धारी [लानिन होकर ] अपना धनुष-धारय गुण धार-बार छोड़ता है परन्तु बाण नहीं छोड़ता; क्योंकि आपही याण छोड़ते हैं, आपके सामने करोति क.। .. जाति-अलंकार । २. अतिशयालंकार । ३. रूपक व उपमालंकार । ४. आक्षेपालंकार । ५. उपमालङ्कार।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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