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________________ सृतीय आश्वासः ३६५ कोदण्णानचातुरी रचयय: प्रामपक्षाहयग्रोवधिोविषयेषु ते मिरवधीन दृष्ट्वा शराहक्ष्यगान् । हत्य नाथ बदम्ति देववनिता क्षोणीसशेऽयं हले कि प्रत्यक्षविनिर्मितेक्षणभुजः कि पेन्द्रजासकियः ॥१०॥ सं कर्ण: कालपृष्ठे भवसि बलि रिपुस्त्वं पुनः साधु शाई गाण्डीवेऽमस्वमिन्द्रः क्षितिरमण हम पिनाके च साक्षात् । बालापायचापानचतुरविधेस्तस्य किं श्लाघनीर्य गाङ्गेयद्रोणरामार्जुननरुनहुषक्ष्मापसाम्ये तत्र स्थात् ॥७३॥ प्रति मार्गणमल्लस्य वाग्जीबिनो वृत्तामि ऋषवाकोदण्डविद्यामुपासांचक्रे ॥ कदाचिसंध्योपासनोत्सुकवैखामसमनसि प्रतिदिवानेहसि भन्योन्यविषयमावं पश्यत यातेऽय शपिनि तपने च | अरुणमणिकुपवलनियमम्बरलक्ष्मीविभतींव ॥॥ दूसरा कौन धनुर्धारी है? || ४७१।। हे राजन् ! मुख के सामने, पीछे भाग पर, बाएँ व दाहिने भागों पर, ऊपर ( आकाश में ), नाचे ( पाताल) में ( समस्त दिशाओं में ) धनुप की आकर्षण-निपुणता की रचना करनेवाले आपके बहुतसे बाणों को लक्ष्य में प्राप्त हुए देखकर श्राकाश में स्थित हुई देवाङ्गता इसप्रकार कहती हैं-हे सखि! यह यशोधर महाराज क्या अपने प्रत्येक ब पर नेत्र व मुजाओं की रचना करनेवाले हैं? अथवा इन्द्रजाल की क्रिया करनेवाले हैं ? ||४७२।। हे पृथिवीनाथ ! आप कर्ण के धनुष में साक्षात् कर्ण हो । पृथिवीनाथ ! आप विष्णु-धनुष में श्रीनारायण हो । हे पृथियोनाथ ! आप गाण्डाव ( अर्जुन-धनुष ) में प्रत्यक्ष अर्जुन हो और रुद्र-धनुष में तुम साक्षात् श्रीमहादेव हो। इसलिए इसप्रकार के श्रापकी, जिसकी बाणों की आकर्षण-विधि उसप्रकार विचक्षण है जिस प्रकार बालकों के याण प्राय सरीखे बाणों की आकर्षण-विधि विचक्षण होती है, भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य, परशुराम अथवा श्रीरामचन्द्र, अर्जुन, नल और नहुप (रघुवंशज धनुर्धारी रामा विशेष ), इन धनुर्धारियों की सदृशता के विषय में क्या प्रशंसा की जासकती है ? ॥ ४७३ ।। प्रसङ्गानुवाद-हे मारिदत्त महाराज! किसी अवसर पर जब तपस्वियों के चित्त संध्यावन्दन में उत्कण्ठिन करनेवाला सायंकाल होरहा था, जिसके फलस्वरूप प्रथियो-मण्डल पर ऐसे अन्ध कार का प्रसार होरहा था, जब मैं हृदय को आल्हादित करनेवाले चारणों के निम्नप्रकार श्लोक अयण कर रहा था, जब दिन पश्चिमदिशा का मुख मण्डित करनेवाले राग में अधिष्ठित हुआ अस्त होरहा था, जब मैं निम्नप्रकार का सुभाषित श्लोक श्रवण कर रहा था ओर जब मैंने अपराह मध्याह्न-उत्तरकाल) का मन्ध्यावन्दन कार्य सम्पन्न कर लिया था एवं जब मेरे दोनों नेत्र चन्द्र-दर्शनार्थ उत्करिठत होरहे थे तब * कविकुरगण्ठीरवः नाम के सहपाठी मित्र ने मेरे समीप भाकर चन्द्रोदय वर्णन करनेवाले निम्न प्रकार श्लोक पढ़े क्या होने पर 'कविकरणकण्ठीरय' नाम के मित्र ने. चन्द्रोदय वर्णन करनेवाले श्लोक पढ़े ? जब भूमण्उल पर ऐसे अन्धकार का प्रसार होरहा था हे सजनो! आपलोग इस समय ( सायंकालीन वेला में } देखिए, जब उदयाचल को प्राप्त हुआ चन्द्र और अस्ताचल को प्राप्त हुआ सूर्य ये दोनों परस्पर-विषयभार । जानने योग्य ) को प्राप्त होरहे हैं। अर्यात-एक दूसरे को परस्पर देख रहे हैं तब आकाशलक्ष्मी लाल मारियों के ताटङ्कों ( कानों के आभूषणों) की शोभा धारण करती हुई-सरीखी शोभायमान होरही है ॥ ४७४ ।। १. उपमालंकार । २. संशयालंकार। ३. रूपय, उपमा व आक्षेप-अलंकार । * प्रस्तुत शास्त्रकार का कम्पित नाम । ४. उपमालकार।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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