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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये अपि चाखण्डसगुण्डालगायुमण्डलीमण्डनमदमप्टिनरुचि, शितिरकर कुरङ्गेश्मणनाये, जाह्नवीजाणवम्बालमञ्जरीजालजयिनि, पुरंदरपुरपुरंधी पयोधराभोगसंगतमृगमइयत्नभासमगे, किंपुरुषकामिनीकुवयुकापटलश्यामसंपदि, प्रत्यङ्गमम्बरतलारिकरटिपाशुप्रमाथासुले, क्षिदेवतानिकेसननीलोएलकलाशप्रकाशभासिनि, दिग्यकालका लरीविलासप्रसरे, विक्पालपुरप्रासादप्रचढाकिनीकुलकलापांकिलिकले, दिगन्सरकान्तारमधुकरी निकाश्यामले, प्रत्यन्तरालमाशावलयसटिनीतरतमालवाद्योतकान्ते, शिखान्तरचरनवरसीमन्तिनीचिकुरवयरोचिपि, निकुञ्जकुमारकायकान्तिकाले, गिरीशगलगरलकल्माषस्विपि,
सानुसारसारमानापाङ्गकृष्णे, प्रतिप्रदेशमवलकालाइभिसारिकाबिजम्भयाधएप्रतानतरले. धराधरणीधम्मिलधामधाधिनि, महीमहिलामौलिमेचकमणिमदोमान्चे, पार्थिवपतिपस्त्यप्रान्तप्रचारिचीतांशुकध्वजासम्बरविम्पिनि, स्मोक्षुकोदण्यपलाशपेशले, प्रतिप्रतीकमिझायनाइद्विद्धिजिवाश्रमहोमधूमाक्रमस्पधिनि, विरहवेगागतभुजङ्गीश्यासानिएमलीमसे, भोगिनगरोपवनपञ्चवोल्लासलोलापदासिनि, लेलिहानानिका बलेइजिलाजिमकालुष्ये, कालियाविप्रभाप्रभावपाटवस्फुटि, प्रत्यय
जिसकी ( अन्धकार की ) कान्ति उसप्रकार मलिन (कृष्ण) थी जिसमकार इन्द्र-हस्ती (ऐरावत ) की कपोलस्थली सुशोभित करनेवाले मद ( दानजल ) की कान्ति मलिन होती है। जिसकी कान्ति चन्द्रवर्ती हरिण की नेत्र-कान्ति सरीखी [ कृष्ण ] है। जो गङ्गाजल की शैवालमञ्जरी-श्रेणी को जीतनेवाला ( उसके सदृश ) है। जो उसप्रकार मनोहर है जिसप्रकार इन्द्रनगर की देवियों के विस्तृत कुच । स्तन ! कलशो पर लगी हुई कस्तूरी की पत्त्ररचनाएँ मनोहर होती है। जिसकी शोभा किन्नरदेव-कामिनियों के कुचचक्षुकों ( स्तनों के अग्रभागों) के समूह सरीखी श्याम है। जो प्रत्येक अवयवों पर आकाशमएडल से उत्पन्न हुआ दिग्गजों का धूलि ताड़न-सरांखा धूलि बहुल है। जो दिक्कन्या मन्दिरों में वर्तमान इन्द्रनील मणिमयो कलशो के प्रकाश-सरोखा शोभायमान होरहा है। जिसका विसर्प विक्रम्याओं की केशवल्लरियों के प्रसर समान है। जिसमें दिपालनगरवी गृहों की मयूर-श्रेणियों की पंख-क्रीडाओं की शोभा वर्तमान है। जो दिशा-मध्यवर्ती बनों की भ्रमरीश्रेणी-सरीखा श्यामल है। जो आकाश के दिशासमूह से [प्रवाहित हुई] नदियों के नटवी तमाल-( नमाज़ ) पत्रों के प्रकाश सरीखा मनोहर है। जिसकी शोभा (श्यामक्रान्ति ) पर्वतों पर संचार करती हुई भील-बधुओं के केशसमूहों-सी है। जो लताओं से आच्छादित प्रदेशों पर स्थित हुए हाथियों की शरीर-कान्ति-सदश कृष्णा है। जिसकी कान्ति श्रीमहादेव की कण्ठवर्तिनी विष-कान्ति सरीखी कृष्ण है। जो तटवर्ती हरिणों की हरिणियों के नेत्रप्रान्तों-जैसा श्याम है। जो प्रत्येक स्थान पर मानुपोत्तर पर्वत से श्राती हुई अभिसारिकाओं ( परपुरुष-लम्पट स्त्रियों ) के विस्तार में वर्तमान कृष्ण बस्न-विस्तार सरीखा चञ्चल है। जो पृथिवीरूपी स्त्री के बंधे हुए केशपाश की कान्तिसरीखा धावनशील है। जो पृथिवीरूपी स्त्री की मांति ( मुकुटबद्ध केशपाश) के कृष्णारत्न के तेजसदृश मान्य है। जो चक्रवर्ती-नगर संबंधी प्रान्तभाग पर प्रचार करनेवाली चीनवस्त्र ( रेशमी श्यामवत्र) की विस्तृत ध्वजा को विडम्बित ( तिरस्कृत ) पारनेवाला है। जो कामदेव के गन्ने के धनुष-पत्र सरीखा मनोहर है। जो पृथिवीमण्डल के प्रत्येक स्थान पर स्थित हुआ द्विज ( दाँत, पक्षी ब ब्राह्मण ) रूप सर्पगृह में वर्तमान होमधूम की उत्पत्ति के साथ स्पर्धा करनेवाला है। जो विरह-वेग को प्राप्त हुई नागकन्या की श्वास वायु-सरीखा मलिन है। जो नागदेवों के नगरवर्ती क्रीडावनों के पल्लवों की उल्लासलीला का उपहास करनेवाला है। जिसमें वायु का आस्वादन करनेवाली सर्प-जिह्रा-सरीखा गुरुतर कालुष्य वर्तमान है। जो श्रीनारायण की कान्ति की माहात्म्य-पटुता को तिरस्कृत करनेवाला है। जो ऐसा मालूम पड़ता है
+'गण्डलीमण्डन' क०। पयंचालिगगम क.. केचिटिनिक.। 'दिगन्ाकान्तार' क्र० । *'सानुसर' ग। 1'अवलिद' का ।