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________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये श्रीरमणीरतिचन्दः कौतिकosreोचन्ह पाक्षिातपत्तिचनश्चिराय वसुधाङ्गनाशचन्द्रः ॥ १७ ॥ शक्षकलत्रोत्रमलिनालेयकालागमः क्षागीरक्षणदक्ष दक्षिगनृपक्रोडावतारक्षमः । राजधर्मविलासवास भवतः कल्पनासमः कामं भाति अगस्त्रये सुरवधूदत्तापात्रक्रमः ।। १७१ ॥ कमानन्दनवनु बारम्भोधिप्रतापगुणविदिते । धर्मसखे विजयश्रीर्वसतु कर तव नृपधुमणे ॥ १७ ॥ पोरभीनहितीप्रबोधनकर धोरस्नाकररत्वं लक्ष्मीकुचकुम्भमनकरत्व स्यागपुष्पाकरः। भदेवीवनिताबिना नकररत्वं लोकरक्षाकरसवं सत्यं जगदेकरामनृपते विद्याविलासाकरः ॥ १३ ॥ घनतालचामरं कापरणकाजी लयाडम्बरं भवार्पितभावमूहचरणन्यासासनानन्दितम् । जलस्पाणिपताकमीक्षणपधानातागहारोस्सर्व नृत्यं च प्रमदारतं च नृपतिस्त्रानं च ते स्तान्मुदे ॥ ६७४ ॥ जो. लक्ष्मी और रमणी (स्त्री) के संभोग हेतु चन्द्र' ( वांछनीब) है, कीर्ति-रूपी वधू के साथ कीड़ा करने में कार्तिकी पौर्णमासी के चन्द्र-सरीखे हैं एवं पृथ्वीरूप स्त्री का शरत्काल-संबंधी मुषर्णमयी आभूषण है। अर्थात्-जिसप्रकार शरत्काल में सुवर्ण-घाटत-आभूषण स्त्री को विशेष सुशोभित मता है. इसीप्रकार मारिदत्त राजा भी पृथ्वीरूपी स्त्री को सुशोभित करते हैं। एवं जो राजाओं को चन्द्र(कपूर ) सरीखे सुगन्धित करनेवाले हैं. ऐसे राजा मारदत्त चिरकाल तक चिरंजीवी हों अथवा सर्वोत्कृष्ट रूप से प्रवर्तमान हो ||१७।। पृथ्वी-पालन करने में समर्थ व धर्म ( दान-पुण्यादि व धनुष ) के क्रीड़ामन्दिर हे राजन ! आपकी कीर्तिरूपी स्त्री का संभोग, जो कि शत्रुभूत राजाओं की स्त्रियों के नेत्ररूप कमलों को उसप्रकार दग्ध करने में समर्थ है, जिसप्रकार हेमन्त ऋतु कमलों को दग्ध करने में समर्थ होती है, एवं जो अनुकूल राजाओं की क्रीड़ा प्राप्त करने में समर्थ है तथा जिसके चरणों में देषियों द्वारा पूजा-भाजन समर्पण किया गया है, तीन लोक में विशेषता के साथ शोभायमान होरहा है। ॥१७॥ हे सम्राटसूर्य ! आपके ऐसे करकमल पर दिग्विजय लक्ष्मी स्थित हो, जो कमला-जन्दन-चतुर है। अर्थात् लक्ष्मी को आनन्दित करने में निपुण है। अथवा जो कमलानन्दन-चतुर है। अर्थान्जो कामदेव के समान संभोग-क्रीड़ा में चतुर है। जो चारों समुद्रों में प्रताप गुण से विख्यात है। इसीप्रकार जिसका धर्म ( दान-पुण्यादि वा धनुए) ही सखा (मित्र ) है ||१७|| हे राजम् ! आप संसार में अद्वितीय (असहाय) राजा रामचन्द्र है। अर्थान् -पता रामचन्द्र तो अपने सहायक सहोदर लक्ष्मण से साइत थे जब कि श्राप अद्वितीय ( असहाय ) राम हैं। आप वीरलक्ष्मी रूपी कर्मालनी को प्रफुल्लित करने के कारण श्रीसूर्य है एवं धर्मम्प रत्न को उत्पन्न करने के लिए समुद्र है। आप लक्ष्मी के कुचकलशों को पत्र-रचना द्वारा विभूषित करने है और त्याग करने में वसन्त ऋतु है एवं आप पृथिवीदेवी रूपी मनोहर स्त्री के साथ संभोग क्रीड़ा करते हुए लोकों की रक्षा करते है तथा यह सत्य है कि आप विद्याविलास की खानि है ।।१७३|| हे राजन् ! ऐसा नृत्य, खीसंभोग और सभामएप आपको प्रमुदित (हर्षित ) करने के लिए हो । जिसमें ( नृत्य व स्त्रीसंभोग में) केशपाश रूपी चॅमर फम्पित होरहे हैं। जिसमें (सभामण्डप में) हस्तों पर कुन्त ( शत्रविशेष ) धारण करनेवाले पुरुषों के कुन्त संबधी चॅमर सुशोभित हो रहे हैं। प्रथया जिसमें चश्चल बालों १. चन्नः सुधांशुकर्पूरतर्पकम्पियारिषु' काम्ये च इति विश्वः । अर्थान-चन्द्रशब्द, चन्द्रमा, कपूर, सुवर्ण, कवीला पध व जल व काम्य, इटने अर्थों में प्रयोग किया जाता है । २. रुपकालबार । ३. रूपकालंकार । धसने इसका दूसरा अर्थ यह है--समस्य सन्त्रा सत्संवृद्धौ धर्ममख्खे । अथात-धर्म या धनुप के मित्र हे मारिल महाराज | विमर्श-यहाँ बहुहि में समासान्न प्रन्यय नहीं होता, अतः उक अर्थ मे यह अर्थ विशेष मच्छा है--सम्पादक । ४. मकालबार । ५. प्यतिरेषस्पकालार। हामीलदाइम्बरं इति (क)।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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