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________________ प्रथम आश्वास पुष्पभोगस्य नारद: फरममृतरुचिः पत्बालमोनधा: कल्लोलाः स्कन्धवन्धो हरगिरिरमगम्भोधिरप्यालयालः । कन्दः दोष शाखाः पुनरस्बिालदिंगाभोग एशेष स स्तासी लोक्यप्रीनिहेतुः क्षितिप तत्र यशःपादपोऽनल्पकल्पम् ॥ १६५ ॥ मुनिकमारिकाअन्यायतिमिरनाशन विधुरितजनशरण समनानन्द । नृपवर लमीवश्चम मवतु चिरं धर्मवृद्धिस्ते ॥ १६६ ।। सुरगिरिरमरसिन्धुरम्भोनिधिस्वनिगमूहसारथिः फणिपतिस्मृतरोचिरमराश्च दिणे दश पाक्दम्बरम् । सावदोषभुवनचिन्तामणिचरित परं महोत्सवैस्सवचरितचन्द्र जय जीव विराज चिराय नन्द च ॥ १६ ॥ उपभुज्य यदिशस्त्रे नपुंसकं नमपि यसः सर्वाः । थामुपभोक्तुं यातं तरलिततारां तदाश्चर्यम् ॥ १६८ ॥ रिपुकुलतिमिरनिकरदावानल जगति तनोषि मङ्गलम दिवि भुवि विदिशि दिशि व विबुधार्चित धाम यासि सन्तसम् । भुवनाम्भोजसरसि महसा मत दिशसि विबोधनभियं धर्मविनोद भूप तत्र भानुमसत्र न किंचिदन्तरम् ॥ १९॥ हे राजन! वह जगत्प्रसिद्ध और प्रत्यक्ष किया हुआ आपका ऐसा यशरूप वृक्ष, अनन्तकाल तक तीन जोक के प्राणियों को आनन्दित करने का कारण हो, जिसमें तारा ( नक्षत्र ) रूप पुष्पों की शोभा होरही है। जो चन्द्ररूप फल से फलशाली होरहा है। जो आकाश-गङ्गा की तरङ्ग-समूह रूप पत्तों की शोभा से सुशोभित होता हुआ केलासपर्षत रूप स्कन्ध - तने-से अलङ्कत है और जो क्षीरसमुद्र रूप क्यारी में लगा दशा एवं धरणेनर रूप जड़ से शोभायमान होकर समस्त दिशाओं में विस्तार रूप शाखाओं से मरिडत है ॥ १६५ ॥ तत्पश्चात्-सर्वधी अभयमति-क्षुल्लिकाश्री ने भी प्रस्तुत मारिदत्त राजा को निम्नप्रकार आशीर्वाद दिया --अन्याय (अनीति ) रूप अन्धकार के विध्वंसक, दुःखित प्राणियों की पीड़ा को नष्ट करने में समर्थ, विद्वन्मण्डली को आनन्ददायक, राज्यलक्ष्मी के स्वामी एवं समस्त राजाओं में श्रेष्ठ ऐसे हे राजन् ! आपकी चिरकाल पर्यन्त धर्मवृद्धि हो ॥१६॥ समस्त पृथिवी-मण्डल को चिन्तामणि के समान चिन्तित वस्तु देनेवाले और चन्द्रमा के समान आनन्ददायक ऐसे हे राजन् ! आप निश्चय से संसार में तब तक पाँचों महोत्सवों से सर्वोत्कृष्ट रूप से विराजमान हो, दीर्घायु हों, शोभायमान हो और चिरकाल पर्यन्त समृद्धिशाली हों, जब तक संसार में सुमेरुपर्वत, महानदी गझा, समुद्र, पृथिवी, सूर्य, शेषनाग, चन्द, देवतागण, दशों दिशाएँ और भारमश विद्यमान है ॥१६७। हे राजन् ! आपका यश नपुंसक (नपुंसकलिङ्ग अथश नामर्द) और वृक्ष (वृद्धिंगत अथषा वृद्धावस्था से जीर्ण हुआ), समस्त दिशारूप स्त्रियों का उपभोग ( रति-विलास) करके अतिशय मनोज चञ्चल नेत्रोंवाली स्वर्गलस्मी का उपभोग करने प्राप्त हुआ है, यह बड़े आश्चर्य की बात है ॥१६॥ शत्रु-मण्डल रूप अन्धकार-समूह के विध्वंस करने में अग्नि सरीखे हे मारिवच महाराज ! थाप संसार में कल्याण विस्तारित करते हैं। हे विद्वत्पूज्य राजन् ! आप आकाश, पृथिवीमंडल, विदिशाओं (अभिकोण-श्रादि) व दिशात्रों को निरन्तर प्रकाशित करते हैं। हे महानुभावों के अभीष्ट ! धाप जगत में स्थित शिष्ट पुरुष रूपी कमलयन में विकास लक्ष्मी उत्पन्न करते हो, अतः जीवदया रूप धर्म . में कौतूहल रखनेवाले राजन् ! आपमें और सूर्य में कुछ भी भेद नहीं है। क्योंकि सूर्य अन्धकार नष्ट है' करता हुआ माङ्गलिक है एवं समस्त वस्तु का प्रकाशक होता हुआ कमलवन को प्रफुल्लित करता है, अतः आप और सूर्य समान ही है ॥१६॥ 1. समुच्चय व रूपालहार । ३. कालकार। ३. अत्युत्कर्ष समुच्चयालद्वार । ४, श्लेपालबार । ५, समुच्चय व उपमालकार । १२
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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