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________________ यसिसमापूरम्ये भद्रस्त्वमसि रवि पलपलमालानुरजनास्सस्यम् । किंतु यवरातिसामु तमांसि विदधाति सचिनम् ॥१६१. कृष्णपति वैरिवर्ग रजपति सतां ममोसि तव देष । दुजति सहानपि क्यापि अझ यशचरितम् ॥ १६६ ।। मूप त्वमेव माता धुरि कनीयः विहुमहालपि भवेधातिदेव । ब किता यह ते विनिमप्रबंशाः क्षोणीस्तरस्वागास्तु समलवंशाः ॥ १३ ॥ उत्सरवरिषवमुक्नहायोगसंकोचमन्त्र प्रहमोनीकापामाणिसुभासावशेषाहः । मालमोहम्बनिनवमरसतीगीतकीतिप्रशारः कर्म कम्पापुरेष प्रपतु सुचिरं धर्मधामाबोका ॥ १६४ ॥ योग्य है कि जर प्रस्तुत मारिदत्त राजा का पराक्रम सर्प-समान काले खङ्ग से उत्पन्न होने के कारण काला है और उसने शत्रु-वंश में भी कृष्णता प्राप्त की है तब उसके द्वारा समप्र पृथिवी मण्डल का शुभ्र होना निवा: नाराव है। जिस तीन गा), प्रातः सा परिहार यह है कि प्रस्तुत राजा का पराक्रम भुजग-सम खा-जनित (दोनो बाहुओं पर स्थित हुए अवक (सीधा) खा से उत्पन्न हुभा) होकर सपाकुल-कालवां प्रयातः (शत्रु-शों में, मृत्यु उत्पन्न करने वाला) है, इसलिए समस्त पृथिवी मंडल को शुभ्र करता है ||१६०॥ हे राजन् ! भाप उसप्रकार कुवलय ( पृथ्वी भएडल ) व कमला ( लक्ष्मी ) को अनुरजनबासित (धानन्दित ) करने के फलस्वरूप क्रमशः चन्द्र व सूर्य सरीखे हैं, जिसप्रकार चन्द्र कुवलय (चन्द्रविकासी कमल समूह) को ष सूर्य कमलों को अनुब्जित ( विकसित ) करता है यह बात सस्य है किन्तु वैसे झेने पर भी जो शमहलों में अन्धकार उत्पन्न करते हो यह आश्चर्य जनक है। अर्थानमापके पराक्रम द्वारा अनेक शत्रु धराशायी होते हैं, जिसके फलस्वरूप उनके गृहों में अन्धकार-सा छाजाता है ॥ १६१॥ हे पजाधिराज ! आपके यश का स्वरूप शत्रु-मण्डल को कृष्ण वर्णवाला और सजनों के चिस को रत ( लालवर्ण-युक) करता हुआ दुष्टों को मलिन करता है तथापि शुभ्र है। अर्थात्-आपसी कीर्ति शत्रों को स्तानमख, सज्जनों की मानन्दित और वादों को मलिन करती हई शभ्र है।।१२।। हे राजन् ! महापुरुषों में आप ही मुख्यरूप से वर्णन करने योग्य हैं। समुद्र महान होने पर भी लघु ही है, क्योंकि जिन क्षोणीभूतों · पर्वतो) ने उसका आश्रय किया है, वे वि-निमग्नवंशाः ( उनके बांस वृक्ष विशेष स्प से पाताल में चले जाते हैं डूब जाते हैं) जब कि आप का श्राश्रय करने वाले क्षोणीभृत (राजा लोग) समृद्धवंशाः (वंशों-कुलो-को श्रीवृद्धि करनेवाले ) होजाते हैं। ॥ १६३ ॥ यह मारिदत्त महाराज, जो विरोष उत्कट शत्रुमण्डल रूपी सर्प समूह के विस्तार को उसप्रकार कीलित करते हैं, जिसप्रकार कीलिव करनेवाला मन्त्र सर्प-समूह के विस्तार को कोलित करता है। जिसप्रकार मेध भूमि पर अमृत की वेगपूर्ण वर्षा करता है उसोप्रकार मारिखस राजा भी उनके चरणकमलों में नम्रीभूत हुए राजा रूपी कल्पवृक्षों की भूमियों पर अमृत की वेगशाली वर्ण करते हैं। अर्थात्-उन्हें धन-मानादि प्रवान द्वारा सन्तुष्ट करते हैं । एवं समुद्र पर्यन्त पृथिवी के स्वामी होने से जिनका कीर्ति-प्रवाह (पवित्र गुणों की कथन सन्तति ) अत्यन्त निकटवर्ती समुद्र के तट पर वर्तमान पर्वतों पर संचार करने वाली देषियों द्वारा गान किया जाता है। अर्थात् वीणा-आदि बाजों के स्वर-मण्डलों में जमाकर गाया जाता है और जो जीव दया रूप धर्म के रक्षक है, विशेषता के साथ दीर्घकाल तक कल्पान्त काल पर्यन्त जीनेवालेचिरंजीवी होते हुए-ऐश्वर्यशाली होवें ॥ १६४॥ . विरोधाभास-अलहार । ३. यथासंख्यालंकार व श्लेषोपमा । ३. पमुच्चय व अतिशयालगर । ४. दलेपालंकार । ५ रूपकालकार । में कर
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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