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________________ प्रथम भाभास अपिकमसाविन्द्रः स्वर्ग भाति सुकृती यस्य परिवामहीभारोबारादहिपतिस्य तिष्ठसि सुखम् । जगजात चैतद्विवयसमयानन्दति परं पिरं शास्त्र तेजस्तदिह जयताद सविधि ॥ १६६ ।। कपूरनुमगर्भधूलिधवल यस्तकामा स्विषः खेतिम्मा परिभूय चन्द्रमहसा साद' प्रतिस्पर्धसे । तस्पाकोन्मुसामाजिकरसलिटबगपावदातं यशः प्रालेयाचलचूलिकासु मखतो गायन्ति सिद्धानाः ॥ १५६ ॥ मातौरि फणीशकामिमि सति त्वं देवि हे रोहिणि श्रीमत्यनमु पारले व सुसनो मा मुशतात्मप्रियान् । नो वेदस्य नृपस्य कीर्ति विसराहलक्षशुद्ध जने युष्मार्क पतयोग्य दुर्बभतरा मन्ये भविष्यम्त्यमी . १६७ ॥ कुवलयदशनीलः कुम्तलाना कापो न भवति यदि गौः शंकरे साश्च पिताः । क्षितिप सब प्रक्षोभिः संभूतायां निमोक्यां साभपरतिवलिः किं तयोः स्शविदानीम् ॥ १५ ॥ हन्दुधालापि कति दलितभुवनत्रयापि तव नृपते । मलिनयति रिपुवना मुखानि यमाय सचित्रम् ॥ १५९ ॥ भुगसमखडाजनितः सपहनकुलकालता प्रयातोऽपि। शुचयति भुषनमखिलं पराक्रमस्ते तदाश्चर्यम् ॥ १६ ॥ सया चवह आश्चर्यजनक शात्र-तेज (क्षत्रिय राजाओं का प्रताप ) इस संसार में चिरकाल पर्यस्त सर्वोत्कृष्ट रूप से प्रवृत्त हो. अर्थात्-उसे हम नमस्कार करते हैं, जिसके प्रभाष से इन्द्र. स्वर्गलोक में पुण्यशाली व सफल होरहा है एवं जिसके आचरण से शेषनाग. पृथिवी के भार के उद्धार से सुखपूर्वक जाग रहा है। अर्थात् क्षत्रिय राजाओं का प्रताप ही समस्त पृथिवी मंडल का भार वहन करता है, अतः धरणेन्द्र भी पाताल लोक में सुख पूर्वक राज्य करता है। इसीप्रकार जिसके द्वारा निश्चय से पृथिवी-मण्डल की समस्त प्रजा दिग्विजय के समय से लेकर अभी तक वृद्धिंगत होरही है' ११५५॥ हे राजन् । कपूर और सरकाश पके हुए नरियल के जल सरीखी ( शुभ्र ) कान्तिवाली आपकी जगत्प्रसिद्ध कीर्ति अपनी प्रतिमा ( उज्वलता) द्वारा केतकी पुष्पों की कान्ति तिरस्कृत करती हुई पूर्णचन्द्र के तेज से स्पर्द्धा करती है एवं देषियों हिमालय-शिखर पर स्थित हुई आपकी उज्वल कीर्ति का निम्नप्रकार सरस गान कर रही है ।।१५६।। हे जननी पार्वती! हे सती साध्वी देखी पद्मावती: हे देवी रोहणी! हे लक्ष्मी-शालिनी ऐराषवप्रिये ! हे सुन्दर शरीर धारिणी इसिनी! आप सब अपने-अपने पतिदेवों को मत छोड़िए। अन्यथायदि आप अपने पतियों ( श्रीमहादेव ष शेषनाग-आदि) को छोड़ देगी-तो ऐसा मालूम पड़ता है-पानोंजब इस मारिदत्त राजा की कीर्ति-प्रसार से समस्त लोक की शुभ्रता दुर्लक्ष ( दुःख से भी देखने के लिए अशक्य) होजायगी सब आपके पति (श्री महादेव, शेषनाग, चन्द्र, ऐरावत और हंस) इस समय विशेष दुर्लभ ( कठिनाई से भी प्राप्त होने को अशक्य ) होजायगे ॥१५७ हे राजन् ! जब दीन लोक आपकी शुभ्र कीर्ति द्वारा भरे हुए उज्वल होरहे हैं तब यदि पार्वती के केश-पाश नीलकमल पत्र सरीले कृष्ण न होते और श्रीमहादेव की जटाएँ यवि गोरोचन सरीखी पीली न होती तो उन शंकर-पार्वती की वेगशाली संभोग-क्रीड़ा इस समय क्या होसकती थी १५।१५८) हे पृथिवी-पति ! आपकी कीर्ति पूर्ण चन्द्रसरीसी शुभ है और उसके द्वारा समस्त तीन लोक उज्बम (शुभ्र) किये गए है तथापि वह शत्रु-खियों के मुख मलिन करती है, यह बड़े आश्चर्य की बात है"।।१५९।। हे राजन! आपका पराक्रम भुजग-सम-खड्ग-जनिठ अर्थात्-कालसर्प-समान कृष्ण ( काले ) खा से उत्पन्न हुआ है और शत्रुओं के वंश में कृष्णत्व को प्राप्त करता है, तथापि समय पृथिषा-मण्डल को शुभ करता है, यह माश्चर्य-जनक है। यहाँपर यह ध्यान देने १. समुरचय व अतिशयालहार। २, उपमा-अतिरामामबार । . उत्प्रेक्षालद्वार। ४. आक्षेपामदार । ५, उपमालंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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