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यशस्तिक्षकचम्पूकाव्ये भयानमाबादामासाहारीत चेल्कोऽपि जनः बलस्वम् । तथापि समिः प्रियमेव चिन्स्यं न मध्यमामेश्यमृते विष हि ॥१५१॥
सानोनितीसियारीपासोनिनिनिशान कृतबहुमानः संभाषणोत्सुकधिषणः प्रसन्नास:भरण इवोपक्ष्यते, व्यापारपति प प्रकटितप्रणययोरिवाश्योरामबाप्पोल्वणे मुह हुवीक्षणे, तत्पर्याप्तमन्त्रोपेक्षदीयलोकसंमतया पामतया [ सपा हि-] पुरः प्रत्यभूमीषु फलं यदि समीइसे । जगदानन्दनियन्दि वर्ष सूक्तिसुधारसम् ॥ १५३ ॥ इति र सुभाषितमनुस्मृत्य सौरवसज्जं सला
स्वर्गापवर्गतरुपलबसंनिकाशं भर्मयावमिविहारपथप्रकाशम् ।
सरप (स्वयुगर्स सूपमेवमूचे तत्तापसा कयुग प्रचितचोभिः ॥१३॥ सत्र मुनिमार:जांभमानां प्रतिपालयित्रे जगत्त्रपन्नायिपराक्रमाप | बवान देवः स जिनः सदा ते राजमशेशणि मनीषितानि ॥ १६४ ॥ प्रवृत्ति करनेवाले महापुरुष, अपनी और शत्रु-मित्र के शाश्वत् कल्याण की कामना प्रायः अवश्य करते हैं एवं उनें इस लोक व परलोक में पापरहित ( शाश्वत् कल्याण-कारक ) मोक्षमार्ग का उपदेशामृत पान कराते हैं। जिसप्रकार अभूत अनेक बार मथन किया जाने पर भी सदा अमृत ही रहता है, अर्थात् कदापि विष नहीं होता उसीप्रकार सजन पुरुषों को भी किसी मानव द्वारा अज्ञान अथवा द्वेषबुद्धि-यश दुष्टता का बर्वाद किये जाने पर भी उसके साथ सज्जनता का प्रयवहार करना चाहिए -उसकी सदा कल्याण-कामना करनी चाहिए ॥ १५ ॥
प्रकरण में यह मारिदा राजा भी जिसकी बुद्धि सदाचारों (आसन-प्रदानरूप मिनय-आदि भने) के फलस्वरूप प्रशस्त है, जिसने सम्मान पूर्वक आसन प्रदान व विशेष सन्मान किया है और
की वृद्धिहम लोगों के साथ चातालाप करने हेतु उत्करिठत है, प्रसमचिस पुरुष-सरीखा विखाई दे रहा है। यह, जिन पर स्नेह प्रकट किया गया है उन सरीखे हम लोगों की ओर आनन्द भश्रुओं से भरे हुए अपने नेत्र बार-बार प्रेरित कर रहा है, इसलिए हमें इसके साथ ऐसे मौन का वाष, जो कि उपेक्षा करने योग्य (अशिष्ट पुरुषों) के साथ अभीष्ट होता है, उचिव प्रतीत नहीं होता।
हे जीध ! यदि तुम, स्नेही पुरुषों द्वारा भविष्य में इष्ट फल (सुख-सामग्री ) प्राप्त करना चाहते हो सो उन प्रेम-भूमि (विशेष स्नेही) पुरुषों में ऐसे सूक्त सुधारस (मधुर वचनामृत ) की वृष्टि करो, जो कि समस्त पृथिवी-मंडल के लिए भानन्द की वृष्टि करने पाला है" ।। १५२ ॥
___ उक्त सुभाषित ( मधुर वचनामृत ) का स्मरण करके उस प्रसिद्ध तपस्वी (सुदत्ताचार्य ) के पुत्रसरीखे शिष्य युगल (प्रस्तुत क्षुल्लक जोड़े)ने अपने ऐसे दोनों करकमल, जो स्वर्ग और मोक्षरूप वृक्षों के पल्स्व-सरीखे हैं और जो दोनों धर्म (मुनिधर्म व श्रावधर्म) रूपी पुथिषी के विहार मार्ग के सहरा है, ऊँचे उठाकर मारिदत्त राजा से निम्न प्रकार कहे जानेवाले स्तुति (भाशीर्वाद ) रूप वचन प्रसिद्ध कविताओं द्वारा अतिशय सौन्दर्य युक्त व लग्नापूर्वक काहे ॥१५३ ।।
___ उक्त अभयरुचि ( भुलक) और अभयमति ( क्षुल्लिका ) नाम के क्षुल्लक जोड़े में से 'अभयरुचि शुलक ने निमप्रकार आशीर्वाव-युत वचनामृत की वर्षा की। हे राजन् ! वह जगत्प्रसिद्ध भगवान अर्हन्त सहा देव, समस्त वर्ण (प्रामादि) और आश्रम (अमचारी-श्रादि) में स्थित प्रजा के रक्षक और तीन लोक की रक्षा करनेवाले पराक्रम से विभूषित आपके लिए सदा समस्त अभीष्ट ( मनचाही ) वस्तुएँ प्रदान करे' ॥१५४ ।।
१. अर्थान्तरन्यास-अलंकार । २, रूपकालबार । १. भतिशयालद्वार ।
जिम