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________________ १२६ यशस्तिलफचम्पूफाये विकल्पेनीतिति निस्तरसने सागराम्भसीयोपलक्ष्यमाणे समस्तेपि विहायसि, भूवनमा साताम्समूतपोलसबकासिनि विकसकोकनदामोदसान्द्रितशरीरे विश्वंभराधरोनिझतनिर्भरशीकरासारमुक्ताफजितकषि विस्करटिकटकन्दर अपानास्वास्वादलडिने सविधप्रधानन्धमधुकरीसमाजकृजितालोकशम्दसंदर्भिणि मिएलीकामसरीस्थाषितर्सगारे सम्सीमन्तिनीः संभावयित दिवाभुजगे इस गानैः शनैः परिसरति मरुति, त्रिदिवमुनिमण्डली स्खलितजलदेववाणलोलिकुलहले पानीज, सरकामुहिश्य द्विमातिहस्ताइस्तास्तोकस्त करन.चन्दनच्छटाउपसिम्पूर्यमाणमण्डले व्योमसामनाभस्थले, पाखिनमनिरोपस्वरतरोचार्यमाणमामधमालोएकासनन्दिले नगरवतानणास्फालितविषिषवाद्योदुरवानसोहले नवसमागमापापरमिधुनकरपतापलापकाइये कमछिनीमभृमतमतालिकलकलोलाले सहचरीरतिरसिकसारसरसितसरके क्रीरामवारकामिनीमाहास्बहले की कान्तियों से पीली व लाल की हुई शोभा द्वारा अल्प कर दिया गया था इसलिए जो, ऐसेसमुद्रजल-सरीखा प्रतीत होरहा था, जिसकी फेन वृद्धि नष्ट हो चुकी है और जो तरङ्ग सङ्गम से रहित है तथा जिसका नीलापन समुद्र के मध्य में स्थित हुए उदयाचल पर्वत के तेज से थोड़ासा होगया है। इसीप्रकार जब ऐसी वायु, दिशारूपी कमनीय कामिनियों को संतुष्ट करने के लिए उसप्रकार मन्द-मन्द संचार कर रही थी, जिसप्रकार दिन में रतिपिलास करनेवाला कामी पुरुष त्रियों को संतुष्ट करने के हेतु धीरे धीरे संचार करता है। कैसा है यह वायुरूपी दिवस-कामुक १ जिसके दुकूल ( दुपट्टे) भोजपत्रवृक्षों के बक्कल है। जो लताओं के पुष्परूपी नूतन मुकुट या कर्णपूर से अलस्त है। जिसका शरीर फूले हुए लालकमलों की सुगन्धि से सान्द्रित ( घना) होरहा है। जिसका शरीर पर्वतों की गुफाओं से प्रवाहित हुए मारनों के जलप्रवाह-समूहों द्वारा मोतियों के आभरणों से विभूषित किया गया है। जो दिग्गओं के गण्डस्थल-बिद्रों से प्रवाहित हुए मद (दान जल ) रूप मद्य-पान के फलस्वरूप विज्ञलीमूत (यहाँ-वहाँ संचरणशील ) होरहा था। जिसमें ऐसी भैपरियों की श्रेणी के, जो समीप में संचार करती हुई सुगन्धि में लम्पट थी, गुंजारने रूपी जय जयकार शब्द की रचना पाई जाती है और जिसका आगमन, मिलीका ( झीगुर या मैंभीरी रूपी विजय घण्टाओं के शब्दों द्वारा सूचित किया गया था। इसीप्रकार जब ऐसी गना नदी की जलराशि. जिसमें अल-देवताओं के क्रीड़ा-कौतूहल में स्वर्ग के लौकान्तिक देवों अथवा सप्तर्षियों की श्रेणी द्वारा बिनाधाएँ उपस्थित की जाती थी, होरही थी। अभिप्राय यह है कि अलकीदा के अवसर पर आए हुए लौचन्तिक देवों या सप्तर्षियों से, लजित हुई जलदेवता अपनी जल-कीड़ा बोड़ देती थीं। इसीप्रकार जब आकाशरूपी हायी र कुम्मस्थला, जिसका प्रान्तभाग ऐसे प्रचुर पुष्प गुच्छों और खालचन्दन की छटाओं के मिष (महाने ) से, सिन्दूर-षिभूषित किया गया था. जो कि सूर्य-पूजा के हरेस्य से वासणादि द्वारा ऊपर क्षेपण किये गए थे। इसीप्रकार जब गृहों की बावड़ियों में हँसपियोंत्र ऐसा मसकलानाद (शब्द), सभी स्थानों में सत्पन्न होरहा था। जो (सभेणी का फलकल-नाद) राजमहल के मध्य में अत्यंत ऊँचे स्वर से पढ़े जानेवाले दिगम्बर ऋषियों या स्तुतिपाठकों के मालिक पाठ के मल्लास (विस्वार ) बरा वृद्धिंगत होरहा या। जो नगर-देवताओं के आँगनों (जिन मन्दिरों) पर वादित किये हुए नानाप्रकार के बाजों (देणु, धीरण, मृदा व शबादि) की उस्कट' ध्वनियों से अस्पष्ट होगमा बा । इसीप्रकार जो. नवीन समागम से उत्पन्न हुए आनन्द के कारण मन्द गमन करनेवाले पकवापस्वी के अनर्थक शब्दों से गम्भीर होगया था। जो कमलिनियों के पुष्परस-पान से सन्तुष्ट हुए एवं . मद को प्राप्त हुए मैक्रों के कोलाहल से उचाल (वृद्धिंगत ) होरहा था। जो सारसी के साथ रतिविलास करने में रसिक (अनुरक) हुए सारस पक्षी के शब्दों से सरक्षवा (अकुटिलवा ) धारण कर रहा था। जो मैथुन कीड़ा से कवार्य (सन्तुष्ट) हुई कुररकामिनी (कररपची-भार्या) के शब्द से प्रचुर होरहा था।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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