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विसीय प्राधासः विकाचपप्रचारप्रारम्भविजुम्मितकुलकमकहरुहानाहान्छाले मदनामीकहकुहरकुलायमिछीमशुक्सारिकामावराधासरले सारसमरसव इसाविकपोत्यचिदिवस इमामृतमयमकाल इव सेतुबन्धप्रबन्ध इस प्रथमयुगाचतारपुण्याह ह . सतः समुण्यात यावीपिकात मुक्षिणविषयकोलाहले, मिजमियोगमप्राङ्गामासंचरणरणम्मणिमनीरस्वरसंकराध्यक्तामासिव्यतिको राजमवनभूमि भोगावलीपाठक, प्रोटिकोटिविघटितपुटनिवेशैणालिनीपलाशैनिशानिरसनविषयका बावियनिकाय एमासमर्दछवि पौषस्यैः पयोधरास्पैसियतीवभिसारिकास्विवारवासयन्सीषु मराली, करेणुकरोस्लसितलकाकीपावापनीय. मानपरागोपदे मागनिषहे, वस्मणक्षरक्षीरप्रतीक्ष्यमाणातिथिषु यजलोफीथिषु, श्रागामिण गल्सर्वसंपावनाकामणि ममणि प्रवापाठनोपायनिरतान्याकाणे नारायणे, प्रलयकालासंभालनादिनि सपदि नि, अनेकमखाहानगमनमूहमतिको सहलाये, होमानिमामामणसमिध्यमानमहसि हुतारमसि, जो, परा-समूहों में संचार करने के उद्यम से बढ़ी हुई जलकाक-पक्षियों की शब्द विशेष की ध्वनि से शब्वायमान होरहा था । जो, ऐसी शुक-सारिकाओं ( तोता-मैनाओं ) के वनों के शब्दों से विशेष प्रचुर होगया था, जो कि राजाओं के बगीचों के वृक्षों के मध्यवर्ती घौसलों में बैठी हुई थी। इसीप्रकार जो ऐसा प्रतीत होता था-भानों-देवताओं और दैत्यों के मध्य हुना युद्ध-संगम ही है। अथवा मानो-ऋषभदेव तीर्थबर के जन्मकल्याणक फा दिवस ही है। अथवा मानों-देव और दानवों द्वारा किये हुए झीरसागर के मन्धन का अवसर ही है। अथवा--मानों-राम-लक्ष्मणादि द्वारा किये हुए सेतुबन्ध का प्रघटक ही है। अथषा मानों-ऋषभदेव के राज्य संबंधी उपदेश काल में किया हुआ पुण्याहयावन (माङ्गलिक पाठ) ही है। इसीप्रकार जब राजमहल की भूमियों पर ऐसी संगीतज्ञों की मधुर गान-ध्वनियों होरही थी, जिनमें शब्द-प्रघट्टक ( ध्वनियों का जमाव) इसलिए अस्पष्ट होरहा था, क्योंकि उनमें (गान-ध्वनियों में) अपने भपने अधिकारों में संलग्न हुई कमनीय कामिनियों के संचार-वश मन्जुल धनि करनेवाले मणिमयी नपुरों के मुनमुन शब्दों की संकरता (मिलावट) होरही थी। जय हँसिनियाँ, रात्रि में भोजन न मिलने के कारण व्याकुलित शरीरबाले अपने बच्चों के समूह को, ऐसी कमलिनी के नवीन पल्लषों से, जिनका पुटनिवेश (जुस हुआ प्रदेश) चन्चु-पुटों के अप्रभागों द्वारा तोड़ दिया गया है, उसप्रकार आश्वासन देरही थी जिसप्रकार बोधाली अभिसारिकाएँ (अपने प्रिय के द्वारा प्रवाए हुए संकेत स्थान पर जानेवाली कमनीय कामिनियाँ) अपने ऐसे कुषों (स्तनो) के अप्रभागों से, जिन्होंने रतिषिलास संबंधी समर्द ( पीड़न ) से दुग्ध उद्वान्त किया है-फैन है, अपने बडो को प्रातः काल में आश्वासन देती है। अर्थात्-जिसप्रकार अभिसारिकाएँ स्तनों के अप्रभागों द्वारा प्रातःकाल में बों को आश्वासन देती है, उसी प्रकार इंसिनियों भी अपने क्षों को कमशिनी के कोमलपत्तों से माधासन देती थीं। जब हस्ती-समह के शरीर पर स्थित हुई धूलि-राशि, हथिनियों के छुएगदण्डो (सूहों) से तो हुए साकी वृक्ष के कोमल पल्लवों द्वारा दूर को जारही थी। इसीप्रकार जब प्रबलोक-धीथियाँ ( गोकुल के ग्वालों के मार्ग), जिनपर उसौसमय (प्रात:काल में) घुड़े हुए दूध से अतिथियों की पूजा की जारही थी। जब मा भविष्यत् लोक की पूर्णरूप से सृष्टि करने में किंकर्तव्य-विमूड म्यापार-युक्त होरहे थे। जव नारायण (विष्णु) का मन ब्रमा द्वारा बनाई हुई सष्टि की रक्षा करने के अपाय (उद्यम) में तत्पर होरहा था। इसीप्रकार जब रुद्र (महेश) लोक की संहार-वेला (समय)के स्मरण-शील होरहे थे। जब इन्द्र, जिसकी बुद्धिरूपी-लता बहुत से यहों में आमन्त्रण ष गमन (स्वयं यहाँ जाना अथवा तीर्थकरों के कल्याणकों में अनेक देवों सहित जाना) में व्याकुल होरही थी। जब
१. 'अगत्सर्गका ।