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________________ यशस्तिलकथम्पूकाव्ये त्रिविम्यापार९रायणावस्थे मध्यस्थे, क्षपाशयक्षीणाच्चाह्नवक्षसि रक्षसि नूत्नरश्मपरनाद्दिवमनोरथे पायोनिधिमार्थ, प्रज्वानोम्फुखरैखानसम मोविनीयमानात्मनि मातरिश्वनि, वनीपकसं तर्पणोद्धारित कोशे बनेशे, योगमिदोदेकमुदिताक्षिके विज्ञाकामे, भरोद्धरणाचीभवेतलि चक्षुःश्रवसि परस्पराचरितसमय व स्वकी पक्रियाकाण्ड हदये भुवनत्रये, पुनः कण्डमकाण्ड कचाकविकिपरिषद बन्धूकजीयेषु विद्रुमारस्मराजिषु पापरणेषु सिन्दूरवशिरः पिण्डा १३८ समालोकागतैभरि सुनिन्ता हतये दुरीहित भवद्विम्युदासाथ च । विभाजि 'दुःस्वप्नामा मूयः कल्पितः याधोवोस्पवं प्राह्म-राज्याबीक्षण मेतदस्तु भवतः सर्वेवालये ॥ १६ ॥ यो दर्शयति भुवनं समस्तं जातः समो भगवतः मधुसूदनेन । श्रीलाविलासबल विरच मृगेक्षणानां क्षोणीश मङ्गखकरी मुकुरः स तेऽस्तु ॥ ९७ ॥ अनि, होम करने में सरल ब्राह्मणों द्वारा प्रदीप्त किये जारहे तेजवाली होरही थी । जब यम तीन लोक के प्रवर्तन में तत्पर अवस्था युक्त होरहा था । जब राक्षस रात्रि-क्षय ( दिन प्रारंभ ) होजाने के फलस्वरूप निराश - हृदयवाला होरहा था । जब वरुण नवीन रत्नों की प्राप्ति करने के प्रयत्न में मनोरथ को प्रेरित करनेवाला होरही थी । इसीप्रकार जब वायु, ध्यान या जप में तत्पर हुए तपस्वियों के हृदयों में कोच किये जारहे स्वरूप युक्त होरही थी और जब कुबेर याचकों को सन्तुष्ट करने के लिए अपन्द्र खजाना प्रकट करनेवाला होरहा था एवं जब रुद्र योग-निद्राके उद्रेक ( ध्यान के पश्चात् प्रकट हुई निद्राकी अधिकता) से अपने नेत्रों के पलक मुद्रित ( बन्द करनेवाला) और जब शेषनाग पृथिषी को ऊपर उठाने में तत्पर चित्तशाली होरहा था और जब तीन लोक का प्राणी समूह, अपने-अपने चाचार - ( कर्तव्य ) समूह के पालन में उद्यत मनवाला होरहा था, इसलिए जो ऐसा मालूम पड़ता था - मानों - जिसने परस्पर में कर्तव्य का अवसर जान लिया है और जब सूर्य, सूर्यकान्तमणि के दर्पण सरीखा मनोज्ञ प्रतीत होता हुआ ऐसा मालूम पड़ रहा था— मानों - जिसने कमलिनी वनों, लालकमलों, चकवा चकवी पक्षि-समूहों, बन्धूकजीवों ( दुपहरी - फूलों ), प्रबाल ( मूँगा ) वनों की श्रेणियों व कबूतरपक्षियों के वरणों में और सिन्दूर - लिप्त मस्तक पिंडवाले हाथियों के पडों में अपनी लालिमा विभक्त करके दी है। इसीप्रकार यशोर्घ महाराज, जो कि शत्रुओं पर प्राप्त की हुई विजय लक्ष्मी के कारण उन्नतराज्यशाली थे, जब अपना मुख, घी में और दर्पण में देखते हुए खुतिपाठकों के समूह द्वारा कही जानेवाली निम्नप्रकार की सूक्तियाँ श्रवण कर रहे थे तब उन्होंने अपने मस्तक पर श्वेत बालरूपी अङ्कर देखा । 'हे राजन! जिनके लिए बहुत सी दक्षिणा ( सुवर्ण आदि का दान ) दी गई है ऐसे ब्राह्मणों द्व जयन के आनन्द-पूर्वक क्रिया जानेवाला यह आपका घृत-दर्शन (घी में मुख देखना), जो कि खोटे स्वप्नों की शान्ति, दु-दर्शन से उत्पन्न हुए पापों के ध्वंस और मानसिक खोटी चिन्ताओं (परधन व पर-कलत्रा की कुचेष्टा ) का नाश तथा उनसे उत्पन्न हुए विघ्न-समूह के नाश का हेतु (निमित्त ) है, आपको समय wrefva वस्तुओं के प्राप्त करने में समर्थ होवे ' ॥६॥ हे पृथिवीपति-राजाधिराज ! यह दर्पण, जो कि अपने मध्य में समस्त लोक प्रदर्शित करने के फलस्वरूप भगवान नारायण ( श्रीकृष्ण ) सरीखा प्रतीत होरहा है एवं जो मृगनयनी कमनीय कामिनियों की शृङ्गारचेष्टाओं का क्रीड़ा-मन्दिर है, आपके लिए माङ्गलिक ( कल्याण-कारक ) होवे ||६७|१ " * 'राग्यावेक्षण' इति क०, घ० । + उकं च - हेलाविलासविबोकलीला ललितविभ्रमाः । श्रीशा पर्यायवाचकाः ॥१॥ [सं० टी० पू० २५२ से संकलित — सम्पादक १. समुच्चयालंकार । २. समुच्चरालंकार । च रव भस का
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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