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द्वितीय आश्वासः शासाविरवारलाजनममसि मनसिजकलहविगणितकालेयपौलोमीकपोलकोमले इरिहयंभमनिर्मितकलशकान्तिविलोपिनि पुरहूतरंभिकाधरप्रसाधनजतुरसोस्कदपटल पेशळे शचीश्रवणावतंसापि पारिजासमारीजालजयिनि सुरससहचरोपचारफ्युसालतकलेएसंपलानेषु स्तुतिमुखाम्बरचीनिकुरुम्बविम्याधरपालयेषु विचमानकमलकोशप्रकाशप्रसरैः करैः पुनरपरमेव किमप्यावकाहार्य सौम्य राति सति गभस्तिमति, तपनतापसोश्चित छाये इत्र तमस्तापिकालुमा वियवच्छे, सकलदिपालधिलासिमोसीमन्तसिन्दूरसंततिसुन्दरालेखरेखासु गगनविशिलासु, स्वरकिरण केसरिश्रमाक्रान्तिभीत इवापरगिरिशिखरान्तरविदारिणि शिशिरकारकरिणि, प्रादेयललिपिषु विलीनेत्रिव लोकलोचनालोकलोपिषु नक्षत्रनिकरपु, विधुरावसर मि कशेषता मिनाणे नभसि, बीरनोश्वर इव करमात्रतन्त्रतामप्रतापप्रकाशनावसाऽदितितमये, अरुणमणिमहीभृत्प्रभापिङ्गरिसरुधिविरसनीलिके
एक समय जब ऐसा सूर्य उदित होधुका था, जो कि अपनी किरणों द्वारा, जिनका प्रसार (विस्तार) प्रफुल्लित कमल कोश (मध्यभाग) के तेज सरीखी लालिमा धारण कर रहा था, स्तुति वचन बोलती हुई देवियों या विद्यावरियों के समूह संबंधी बिम्बफल-सरीखे भोपालयों में कोई अनौग्ने लानारस के साश चारों ओर से उपमा देने योग्य सौन्दर्य (मनोज्ञ लालिमा) की सृष्टि कर रहा था। कैसे हैं विद्यारियों के प्रोष्ठपल्लव ? जिनमें रतिविलास के समय मित्रता करनेवाले पतियों द्वारा कीजानेवाली पूजा (सन्मान) के अवसर पर गिरे हुए लाक्षारस. क्षेप के शोभा-लेश वर्तमान थे। कैसा है सूर्य ? जिसका विम्ब, इन्द्र-नगर ( पूदिशा में स्थित इन्द्रदिक्पालनगर) की ध्वजाओं के प्रान्तभागों के स्पर्श करने के योग्य (निकटतर ) है। जिसके उदय में विकसित कमल-समूहों के आस्वादन करने में हंसी-श्रेणी का चित्त धना ( आसक्त) होरहा था। जो इन्द्रागी के ऐसे गालस्थल-सरीखा मनोहर है जिसका काम की मथुन क्रीड़ा द्वारा कुकम गिर गया है। जो इन्द्र-भवन पर स्थित सुवर्णमयी कलश की कान्ति तिरस्कृत करता है। जो इन्द्र की घालपल्ली के ओष्ठों को 'अल-कृत करनेवाले लाक्षारस के उत्कट पटल ( समूह ) सरीखा मनोश ( लालिमा-शाली) है। इसीप्रकार जो, इन्द्राणी के कानों के कर्णपूर के लिए स्थापित की हुई दिव्यपुष्प संघधी लताश्रेणी को तिरस्कृत करता है। इसीप्रकार जब आकाशरूपी चन, अँधकाररूपी तमालवृक्ष के गुच्छों से रहित होने के फलस्वरूप ऐसा प्रतीत होरहा था मानों-सूर्यरूपी तापसी द्वारा उसकी छाया नष्ट कर दोगई है। अभिप्राय यह है कि अब वृत्तों से पत्ते व पुष्प तोड़ लिये जाते हैं, तब उनमें छाया नहीं होती। जब श्राकाश-मार्ग ऐसे शोभायमान होरहे थे, जिनकी विन्यास-रेखा, समस्त दिक्पालों (इन्द्र अग्नि, यम व नैऋत्य-आदि ) की कमनीय समिनियों के केश-भागों पर स्थित सिन्दूर-श्रेणी सी मनोश होरही थी। जब चन्द्रमारूपी हाथी अस्ताचल पर्वत की शिखर के मध्यभाग पर पर्यटन करता हुआ ऐसा प्रतीत होरहा था मानों-सूर्यरूपी सिंह के पंजों के भाक्रमण से भयभीत हुआ है। इसीप्रकार जब नक्षत्र-श्रेणी, लोगों के नेत्र-प्रकाश से लुप्त ( ओझल) हो रही थी, इसलिए जो ऐसी मालूम पड़ती थी मानों थोड़े से पाले की लिपियों (अक्षर-विन्यासों) में ही गल चुकी है, इसीलिए ही मानों-दृष्टिगोचर नहीं होरही थी और जब श्राकाश केवल मित्र (सूर्य) को ही धारण कर रहा था। अर्थात--जब आकाश में केवल सूर्य ही उदित होरहा था और दूसरे नक्षत्रभाषि अस्त होचुके थे, इसलिए जो ऐसा मालूम पड़ता था-मानों-वह ( आकाश ) यह बता रम था कि कष्ट के अवसर पर मित्र (मित्र व पक्ष में सूर्य ) ही समीप में रहता है और उसके सिरा दूसरे सब लोग भाग जाते हैं। जब सूर्य करमात्र-तन्त्रता अर्थात केवल किरणों को स्वीकार करने से अपना प्रताप ( उष्णता) प्रकट करने में उसप्रकार उद्यमशील होरहा था जिसप्रकार शूरवीर राजा करमावतन्त्रता-अल्प टेक्स और सैन्यशक्ति से अपना प्रताप ( राजा का तेज-खजाने की शक्ति और सैम्प-शक्ति-प्रकट करने में उद्यमशील होता है। जब समस्त आकाश का नीलापन, उदयाचल पर्वत