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________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये एपश्चर्याम पन्दरि, करिविनोदषभिवादिनि, हयसीदासु पामरति, स्वैरविहारेपासपस्त्रोपकृति, भर्मासनेषु कार्यपुरश्चारिणि, समरसमय सुभासरतथा विकमिणि, परेण च सेन तेन विनयकर्मणा सकलस्यापि लोकस्य वदमारविम्वेषु स्वकीर्य पशोहसं प्रसारयति, भगाङ्गलिपुटेषु च निजकीर्तिपुधारसं प्रायति, सरसेपि मजम्ममा रत्नाकर स्वेन्दिरानुजम धर्माराम इब फलसंपदा प्रापर्धत इव मणिमण्डलेग साहिदिवस इस प्रजापतिना दीपमा इव मन्दरेणास्मान बहुमभ्यमाने, सकशापारकरपरिमहा कुलनियमिवैकमोग्यां भुवमनुलासति सति, स्तैमनोभिलासादिसंबाई: सुखसंकधादिनी मुहूर्तसमया इव समाः काश्चिद्वतीयुः ।। एवं रस्लकाधनयोरिव समसमायोगेन भमदनलवरयोरिव परस्परप्रीस्था धनंजयज पन्तयोरिव महोपयैश्वर्थरसेनापोकामनोम्पोस्वि चाम्योन्यामुवनेन निस्पमादयोसमानयोरेकदा पुरंदरपुरपताकाबलम्बनोधितमण्डले बनेजवनविकासवि जब मैं रथ-संचालन कला में प्रवीण पुरुषों में सारथि-सा निपुण और हाधियों की कीड़ा कला में महावत-जैसा प्रवीण था। इसीप्रकार जब मैं घोड़ों की भीड़ा में घुड़सवार सरीखा प्रवीण था। इसीप्रकार जब मैं बन क्रीड़ाओं में छत्रधर था। अर्थात्-जिसप्रकार छत्रधर वनक्रीड़ा के अवसर पर उष्ण व वृष्टि आदि से बचाता हुषा उपकारक होता है उसीप्रकार में भी पिताजी की वनक्रीड़ा के अवसर पर छत्रधर-सा उपकारक था- उनकी विघ्न-बाधाएँ दूर करता था। जब में राजसभा-भवन संबंधी कार्यों ( सन्धि च विग्रह-श्रादि) के निर्णय करने में अमेसर धा। जब मैं संग्राम के अवसरों पर सहसमट, लक्षभट व कोटिभट योद्धाओं के मध्य प्रमुख होने के फलस्वरूप पराकमशाली था । इसीप्रकार जब मैं उस उस जगप्रसिद्ध विनय धर्म द्वारा समस्त मानवों के मुखकमलों में अपना यशरूपी हँस प्रविष्ट कर रहा था और जब मैं कानों के अञ्जलि पुढो में समस्त लोक द्वारा अपनी कीर्तिरूपी अमृत-वृष्टि करा रहा था। इसीप्रकार जब मेरे पिता यशोमहाराज मेरे जन्म से अपने को उसप्रकार महान ( भाग्यशाली) समझते थे जिसप्रकार समुद्र चन्द्रोदय से, धर्मरूपी उद्यान स्वर्गादि फल सम्पत्ति से, उदयाचल पर्वत सूर्य विम्बोदय से, सृष्टि का प्रथम दिवस ब्रह्मा से और जम्बूद्वीप सुमेरु पर्वत से अपने को महान समझता है। इसीप्रकार जश्व मेरे पिता ऐसी पृथ्वी का शासन कर रहे थे, जो कि कुलवधू-सरीखी केवल उन्हीं के द्वारा भोगी जाने वाली धी और जिसके चारों समुद्रों के मध्य टैक्स लगाया गया था तब उनकी पूर्वोक्त प्रकार से सेवा-शुश्रूषा करते हुए मेरे कुछ वर्ष, आनन्द देनेवाले कथा-कौतूहलों से, जिनमें मानसिक अभिलाषाओं को प्राप्त करानेवाले शिष्ट वचन पाये जाते हैं, मुहूर्त (दो घड़ी ) सरीखे व्यतीत हुए। इसप्रकार जब हम दोनों पिता-पुत्र (यशोमहाराज व यशोधर कुमार ) उसप्रकार सहशसंयोग से शोभायमान होरहे थे जिसप्रकार रत्न और सुवर्ण का संयोग शोभायमान होता है। अर्थात्-मेरा पिता रम-सदृश और मैं सुवर्ण-समान था। इसीप्रकार अब हम दोनों उसप्रकार पारस्परिक प्रेम में वर्तमान थे जिसप्रकार कुवेर और उसका पुत्र नलकूपर पारस्परिक प्रेम में स्थित रहते हैं और जिसप्रकार देवताओं का इन्द्र और उसका पुत्र ( जयन्त विशेष उन्नतिशाली ऐश्वर्य (विभूति ) के अनुराग से शोभायमान होते है.उसीप्रकार हम दोनों भी विशेष चम्मतिशील एश्वर्य (विभति) के स्नेह से शोभायमान होते थे। एवं हम दोनों पारस्परिक अनुकूलता में इसप्रकार सदा वर्तमान थे जिसप्रकार श्रीनारायण (श्रीकृष्ण) और उनके पुत्र प्रयुग्मकुमार सदा परस्पर अनुकूल रहते हैं तब एक समय नीचे लिखी घटनाओं के घटने पर . विजय ( शत्रुओं का मान-मर्दन ) से उनत या अप्रतिहत (किसी के द्वारा नष्ट न किये जानेवाला) यभ्यशाली हमारे पिता (यशार्घमहाराज) ने ऐसे अवसर पर जब वे अपना मुख थी में और वर्षण में देख रहे थे, अपने शिर पर सफेद बालरूपी अङ्कर देखा। प्रस्तुत घटनाएँ
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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