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________________ यशखितकाम्पूचव्ये देव, सविचाइविधुरोपकारा हि सेवकेषु स्वामिममनुरक्षायमपाश्चर्यशौर्यविजम्माः प्रारम्भा या। तत्र संस्तावपिण्डीमाण्डाकिनो पितृप्रियपिण्डीनामस्य । यतः। मरम्बाजासस्तात: पामरपुत्री च यस्य जनयित्री। पञ्चपुरुषा र योषा कुलस्थितिः स हि कथं तु कुलजम्मा ॥१७॥ देव, तथाविधान्षयपात्रे धात्र येयमई महीक्षिवित्याकृतिः, उभयकुलविशुद्धिपात्रनिहीनधारित्रैः शतपुत्रः फेलाभ्यवहारेण स्थितिः, देवेन च स्वयमभ्युस्थानविहिसिः, बान्धवजनप्रगतिः सामन्तीपनतिर्महापुरुषापपितिश्च, सा मन्तःस्तातका राज्यशालाकेत कमई कारोस्तकं सविवेक र लोकं खरं न स्वेदयति। ततश्च । हे राजन् ! निन्नप्रभार के चार गुण जब सेवकों (मन्त्री-आदि अधिकारियों) में होते हैं तब उन गुणों के कारण उनके स्वामी उनपर स्नेह प्रकट करते हैं। १. कुल (उबवंश), २. विद्या (राजनैतिकशान).३. वृत्त-ब्रह्मचर्य-श्रादि सदाचारसम्पत्ति और ४. विधरोपकार-अथोत-व्यसनोंसंकटों के अवसर पर उनसे स्वामी का उद्धार करना। अर्थात्-सेवकों के उक्त चारों गुण स्वामी में स्नेह उत्पन्न करते हैं अथवा सेवकों द्वारा शत्रु के प्रति किये जानेवाले ऐसे युद्ध, जिनमें चित्त को चमत्कार सत्पन्न करनेवाली अनोखी शूरता का विस्तार पाया जाता है, भी स्वामी को अनुरक्त करते हैं। अभिप्राय यह है कि जो मन्त्री-आदि सेवक गण यदि उक्त चारों प्रकार के गुणों से परीक्षित नहीं होते हुए भी केवल संग्राम-शूर होते हैं, वे अपने स्वामी को अपने ऊपर अनुरक्त नहीं बना सकते। भावार्थ-शनक' नाम का गुप्तचर यशोधर महाराज से कहता है कि हे देव ! प्रस्तुत मन्त्री में उक्त चारो गुणों का सर्वथा अभाव है और संग्राम-शूरता भी केवल उसके गाल-बजाने में है न कि कार्यरूप में, अतः वह आपको अपने ऊपर मनुरक्त नहीं कर सकता। उक्त बात आगे विस्तार-पूर्वक कही जाती है-हे राजन् ! इसका वंश (फुल) खल संग्रह-शाली तिलों की खलीवाले ( तेलियों) का है, अर्थात् आपका यह 'पामरोदार' नामका मन्त्री तिली आदि की खली का संग्रह करनेवाले नीच जाति के तेलियों के वंश में उत्पन्न हुआ है। क्योंकि-हे राजन् ! जिसका पिता तेलियों के वंश में उत्पन्न हुआ है और माता पामर पुत्री (नीच की पुत्री ) है और जिसकी स्त्री पञ्चभारी ( पाँच पतियों को रखनेवाली) है, इसलिए ऐसे कुल के आचारवाला वह मन्त्री निश्चय से उपकुल में जन्मधारण करनेवाला किसप्रकार हो सकता है ? अपितु नहीं हो सकता ॥१७॥ हे राजन् ! वैसे कुलवाले (तेली-कुल में उत्पन्न हुए ) इस ‘पामरोदार' नामके मन्त्री में जो यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला ‘में राजा हूँ' इसप्रकार का अहंकार पाया जाता है और जिसका उच्छिष्ट (अँठा) भोजना उत्तमजाति व भएकुल में उत्पन्न हुए भी निकृष्ट प्राचारवाले राजपुत्र करते हैं। अर्थात्-जो राजपुत्रों को अपना उच्छिष्ट भोजन कराने का निन्ध आचार रखता है एवं केवल इतना ही नहीं किन्तु जिसके आने पर आप भी स्वयं सिंहासन से उठते हो और इसके कुटुम्बीजनों के लिए प्रणाम करते हो एवं अधीनस्थ राजालोग भी संमुख आकर इसके लिए नमस्कार करते हैं। इसीप्रकार महापुरुषों द्वारा जो इसकी पूजा ( सन्मान ) की जाती है, वह ( पूजा) मन में सन्ताप उत्पन्न कराती हुई किस स्वाभिमानी ='फलाभ्यवहरगस्थिति: १०। १. उक्तं च-'विवर्षः पामरो नौचः प्राकृतच पृथग्जनः । निहीनोऽपसदो जात्म: सुशकाश्चतुरचरः ॥ चर्वरोऽप्यन्यथा जातोऽपि' इति क्षीरस्वामिवचनम् । यश की संस्कृतटीका पृ०४३० से समुवृत्त-सम्पादक २. समुच्चयालार।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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