________________
प्रथम आवास
स यौधेय इति क्यातो देशः शेऽस्ति भारते । देवश्रीस्पर्षया स्वर्गः स्वाट्रा मध वापरः ॥ १२ ॥ धपत्रक्षेत्रसंजातसस्यसंपतिवन्धुराः। चिन्तामणिसमारम्भाः सन्ति यत्र क्युन्धराः ॥ ३ ॥ लखने यन्त्र नोलस्य लनस्यन बिगाने । विगारस्य च धाम्यस्य नालं संग्रहाणे प्रजाः ॥ ५॥ दामेन वित्तानि धनेन यौवनं यशोभिरापि गृहाणि चार्थिमिः । मजन्ति सांकमिमानि वेहिनां न यत्र वर्णाश्रमधर्मचर:४५
तन्न तविलासिनीविलासकालसमासामाममरकुमारकाणामनालाचे नमस्तरणमार्मचिनिनिमिः, उपहसिसमिसिएगिरिहरावलशिखः, अनितटनिविविकटटोस्पाटकरटिरिपुसमीपसंचारचाकलचन्तुमागविलोचनरूचिकिचालयोपहा. रिभिः, अहमस्थनुसाच रणाक्षुण्णमासमायविक्रमः, अम्बरपरचमूविमानगतिवकिमविधायिभिः, अनवरतत्रिदर्शनास
भरतक्षेत्र में प्रसिद्ध यह 'यौधेय' देश अत्यधिक मनोहर होने के फलस्वरूप सा प्रतीत होता था-मानों-अशा इन्द्र की लक्ष्मो से इंश्यों करके दृसरे स्वर्ग का ही निर्माण किया है । यहाँ की भूमियाँ, अत्यधिक उपजाऊ खेतों में भरपूर पैदा होनेवाली धान्यसम्पत्ति से मनोहर और चिन्तित वस्तु देने के कारण चिन्तामणि के समान आरम्भशाली थी ।।४३।। जहाँपर ऐसी प्रचुर--महानधान्य सम्पत्ति पैदा होती थी, जिससे प्रजा के लोग बोई हुई धान्यगाशि के काटने में और काटी हुई धान्य के मर्दन करने में तथा मर्दन की हुई धान्य के संग्रह करने में समर्थ नहीं होते थे ||४४ा जहाँपर प्रजाजनों की निम्न प्रकार इतनी यस्नु परस्पर के मिश्रण से युक्त थीं। यहाँ धनसंपत्ति पात्रदान से मिश्रित थी। अर्थात् यहाँ की उदार प्रजा वान-पुण्यादि पवित्र कार्यों में खुब धन खर्च करती थी। इसीप्रकार युवावस्था धन से मिश्रित थी। अर्थात्-वहाँ के लोग जवानी में न्यायपूर्वक प्रचुर धन का संचय करते थे। एवं यहाँ की जनता का समस्त जीवन यशोलाभ से मिश्रित धा-यहाँ के लोग जीवन पर्यन्त चन्द्रमा के समान शुभ्रकीति का संचय करते थे। वे कभी भी अपकीति का काम नहीं करते थे। तथा वहाँ के गृह याचकों से मिश्रित थे, अर्थात् यहाँ के गृहों में याचकों के लिए यथेष्ट दान मिलता था। परन्तु वहाँपर वर्ण । ब्राह्मण व क्षत्रियादि ) व बाश्रम (ब्रह्मचारी व गृहस्थ-आदि ) में वर्तमान प्रजा के लोग अपने-अपने कर्तव्यों में लीन थे । अर्थात् एक वर्ण व आश्रम का व्यक्ति दृसरे वर्ण व आश्रम के कर्तव्य (जीविका-यादि ) नहीं करता था* ॥४५।।
उस प्रस्तुत 'योधेय' देश में से चैत्यालयों से सुशोभित राजपुर नाम का नगर है। जो ( चैत्यालय ) ऐसे प्रतीत होते थे मानों-राजपुर की कमनीय काम नियों के बिलाम-कटाभ-विक्षेपरूप नेत्रों की चंचलता-देखने के लिए विशेष उत्कण्ठित चित्तवृत्तिवाल देवकुमारों को । कयोंकि स्वर्ग में देवियों के नेत्र निश्चल होते हैं ). आधार-शून्य आकाश में वहाँ से उतरने के मार्ग का बोध करानेवाले चिन्हों के योग्य जिनकी उज्वल कान्ति है। जिन्होंने अपनी उच्च व शुभ्र शिस्वरों द्वारा हिमालय व फैलाश पर्वत के शिखर तिरस्कृत कर दिये हैं। जिनमें ऐसे बिकसित मुबलयों से पूजा हो रही है जिनकी कान्ति, चायालयों की कटिनियों में जड़े हुपय जिनकी विस्तृत केसरों से व्याः श्रीवार प्रकट भिगोधर हो रही हैं ऐसे मणि-घटित कृत्रिम सिंहों के समीप में संचार करने में भावभीत म्हुग--जीवितसिंह की शंका से हरे हुए चन्द्र में स्थित मृग के नेत्रों के समान है। जो इतने ज्यादा ऊँचे हैं, जिससे ग्राकाश में गमन करने से थके हुग सूर्य के रथ मंबंधी घोड़ों के पैरों को एक मुहर्त के लिए जहाँपर पूर्ण विश्राम मिलता है। जो ( चैत्यालय ), देव और विद्याथरों की सेना के विमानों की गति को कुटिल करनेवाले हैं। जिनकी
१. 'चरपासूण इति हरि ह. लि. सुटि. ( . घ.)नि पाः । २. उत्प्रेक्षाला। ३. उपमालंकार । ४. दीपकालंकार । ५. दीपकालंकार