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________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये सुरेचरसेना इव स्वाम्परा राज्यविसः । निकम मालाः, वियतापगाप्रवाहा हब विगतोपल सीमानः, सकराजगनिर्माणप्रदेशा एव सर्वजीविनः, सुद इच च परस्परप्रेमाभिजात्याः कुक्कुटसंपात्याः सन्ति मामाः । अपि च विचकोस्परस्पन्दितरलेक्षणाः केष्टितालक्यणत्कनकमयकरणाः सरसनवराजिविरुद्धस्तिभुजमण्डलाः कानिकोल्लासवशवशिसोरुस्थलाः स्वैरसंजाल्पनस्मेरसिम्बाधराः कर्णकण्डमिषोदलितकक्षान्तराः पृथुनितम्बवशस्पटलरहगतिविक्रमाः सहजशकाररसभरिसमुखविनमाः पीनकुचकुम्भदर्पसुटरकञ्चकाः शालिवप्रेषु यादयः क्षय गोपिका: पान्यसाथषु मदनोत्सवं कुर्यते यत्र साप पुननिरमपाचिन्वते । जो इन्द्र की सेना के समान स्वामी में अनुरक्त हैं। अर्थात्-जिसप्रकार इन्द्रकी सेना तारक का घर करने के लिए स्वामी कार्तिकेय-से अनुरक्त-प्रेम करने वाली है, उसीप्रकार ग्राम भी स्वामी-पालक राजा में अनुरक्त है। जो अच्छे राजा के दिनों के समान जिनका महीभाग निकरटक है। अर्थात-जिस प्रकार अच्छे राज्य के दिनों में भूमि के प्रदेश निकण्टक-क्षुद्रशत्रुओं से रहित होते हैं उसीप्रकार प्रामों में भी भूमि के प्रदेश निष्कण्टक-वेर वगैरह काँटों वाले वृक्षों से शून्य हैं। इसोप्रकार जो गङ्गानदी के प्रवाहों के समान विगत-उपल-सीमाशाली हैं। अर्थात्-जिसप्रकार गङ्गा नदी के प्रवाह वि+गत+उपल सीमाशाली है, अर्थात्-हंस, सारस व पक्रयाक आदि पक्षियों से प्राप्त कीगई है गण्डशैलों-चट्टानवाले पर्वतों-की सीमा जिनमें ऐसे हैं, उसीप्रकार प्राम भी विगल-उपल सीमाशाली है. अर्थात-पापाणों से शून्य सीमा से सुशोभित हैं। जो समस्त जगत ( अधोलोक, ऊर्ध्वलोक मध्यलोक ) के निष्पादन प्रदेशों के समान सर्पजीवी है। अर्थात्-जिसप्रकार समस्त जगत के निष्पादन स्थान ( ऊर्ध्वलोक-आदि) समस्त चतुर्गति का प्राणी-समूह है वर्तमान जिनमें ऐसे हैं उसीप्रकार ग्राम भी सर्व जीबी-सः जीव्यन्ते भुज्यन्ते, सर्वान् जीययन्ति वा, अर्थात् समस्त राजा व तपस्वी आदि द्वारा जीविका प्राप्त किये जानेवाले अथवा सभी को जीवन देनेवाले हैं। एवं जो मित्रों सरीखे पारस्परिक स्नेह से मनोहर है। अर्थान्जिसप्रकार मित्र पारस्परिक प्रेम से सुन्दर मालूम होते हैं, उसीप्रकार प्राम भी ग्रामीणों के पारस्परिक प्रेम से मनोहर हैं। एवं जो इतने पास-पास बसे हुए हैं, कि मुर्गों द्वारा नड़कर सरलता से प्राप्त किये जाते हैं। जिस यौधेय देश में धान्य के खेतों में गमन करती हुई ऐसी गोपियाँ-ग्वालने अथवा कृषकों की कमनीय कामिनियाँ-एक मुहुर्त पर्यन्त पान्थ-समूह-बटोहीसंघ-के नेत्रों को आनन्द उत्पन्न करती है, परन्तु पश्चात् वियोग-वश जीवनपर्यन्त विप्रलम्भ (वियोग) से होनेवाले सन्नाप को पुष्ट करती हूँ-वृद्धिगत करती हैं। जिनके चखाल नेत्र, फर्णमण्डल के आभूपणरूप विकसित कुवलयों-नीलकमलों से स्पर्धा करते हैंजनके समान है। जिनके सुवर्ण-घटित कङ्कण क्रीड़ावश परस्पर के करताड़न से शब्दायमान होरहे हैं, जिनकी भुजाओं के प्रदेश । स्थान), प्रियतमों द्वारा नकाल में दीगई --कीगई–सरस-सान्द्र (गीली) नस्य-क्षत की रेखाओं से कर्बुरित ( रंग-बिरंगे हैं। जिन्होंने कमर की करधोनियों को ऊँचा उठाकर अपनी जंघाओं के प्रदेश दिखाये हैं। जिनके विम्यफल सरीखे ओष्ठ परस्पर में यथेष्ट वार्तालाप करने के फलस्वरूप मन्द हास्य से शोभायमान होरहे हैं, जिन्होंने कानों को खुजाने के बहाने से अपने बाहुमूल के प्रदेश दिखलाये हैं। जिनके मनोहर गमनशाली पादाक्षेप---चरणकमलों का स्थापन-विस्तीर्ण ( मोटे) नितम्बों-- कमर के पीछे के हिस्सों के कारण स्खलन कर रहे हैं, जिनके मुख-कमलों का विभ्रम . (हार-बिलास प्रथया भ्रकुटि-संचालन ) स्वाभाविक शृङ्गाररस के कारण भरा हुअा है एवं जिनकी काँचली (स्तन वस्न) पीन ( स्थूल ) कुचकलशों (स्तनों) के भार की वृद्धि से फट रहे हैं। १, श्लेष उपमा व समुच्चयालंकार। २, शहाररसप्रधान विप्रलम्भसंदर्शित जाति-आलंकार । |
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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