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________________ प्रथम आश्वास भागवता इव प्रतिपद्मकृष्णभूमयः, सांख्या इव समाभितप्रकृतयः, हरमौत व सुभाः, संक श्व हुलबहुलाः ग्रह्मवादा पत्र प्रथितासमा महायोगिन हर क्षेत्रप्रतिष्ठाः सलिलमभिषय इव विद्रुमको स्वर्गत इवातिथिप्रार्थ न मनोरथाः, गगनसान इव मक्षत्रविराजिनः कलत्रकुचकुम्मा इव मकरसंचा € चाक के शात्र अदेवमातृक अर्थात् देव ( सर्व-ईश्वर) और माता - श्रात्मद्रव्य -- की मान्यता से शून्य हैं उसीप्रकार प्राम भी श्रदेष - मेघ वृष्टि (वर्षा) के अधीन नहीं है-रिइटबहुल है-अर्थात् वहाँ के लोग नहीं तालाब आदि की जलराशि से उत्पन्न हुई धान्य से जीविका करते हैं, न कि दृष्टि की जलराशि से । जो वैष्णवों की तरह प्रतिपन्नकृष्णभूमि हैं । अर्थात् – जिसप्रकार वैष्णव लोग कृष्णभूमिद्वारिका क्षेत्र में छह माह पर्यन्त निवास करते हैं, उसीप्रकार ग्राम भी प्रतिपद्मकृष्णभूमि हैं। अर्थात् जिनकी कृष्णभूमि - श्यामवर्णवाली खेतों की भूमि कृषकों द्वारा स्वीकार की गई है ऐसे हैं। जो सांख्य दर्शन के समान समाश्रित प्रकृति हैं । अर्थात् जिसप्रकार सांख्यदर्शनकार प्रकृति ( सत्व, रज, चौर राम इन तीन गुणरूप चौबीस भेदयुक्त प्रधान तत्व ) स्वीकार करते हैं उसीप्रकार ग्राम भी समादि प्रकृति है । हलजीविक आदि १८ प्रकार की प्रजाओं से सहित हैं। जो श्रीमहादेव के मस्तक-समान सुलभ जलशाली हैं । अर्थात् जिसप्रकार महादेवका मस्तक गङ्गा को धारण करने के कारण सुलभ जलशाली है उसीप्रकार गावों में भी जल सुलभ हैं । अर्थात् - वहाँ मरुभूमि (मारवाड़) की तरह पानी कठिनाई से नहीं मिलवा । जो बलभद्र की युद्धकीड़ाओं के समान दलबहुल हैं । अर्थात् जिसप्रकार बलभद्र की युद्धक्रीड़ाएँ, इलायुधधारी होने के कारण हल से बहुल ( प्रचुर - महान ) होती हैं. उसीप्रकार ग्राम भी कृषि प्रधान होने के कारण अधिक हलों A से शोभायमान हैं। इसीप्रकार जो वेदान्तदर्शनों की तरह प्रपश्चित आराम है अर्थात्जिसप्रकार वेदान्त दर्शन प्रपचित-विस्तार को प्राप्त कीगई है आराम - विद्या ( ब्रह्मज्ञान ) जिनमें ऐसे हैं उसीप्रकार ग्राम भी विस्तृत हैं आराम (उपवन-बगीचे) जिनमें ऐसे हैं । जो महायोगियों -- गणधरादि ऋषियों के समान क्षेत्रप्रतिष्ठ हैं। अर्थान् -जिसप्रकार महायोगी पुरुष क्षेत्रज्ञ - आत्मा -- में प्रसिष्ठ - लीन होते हैं, उसीप्रकार ग्राम भी क्षेत्रों-हलोपजीवी कृषकों की है प्रतिष्ठा (शोभा) जिनमें ऐसे हैं। जो समुद्रों के समान विद्रुमच्छन्नोपशल्य है । अर्थात् जिसप्रकार समुद्र, विद्रुमों-मूंगों से व्याप्त है उपशल्य - प्रान्तभाग-- जिनका ऐसे हैं, उसी प्रकार प्राम भी विद्रुम-विविध भाँ के वृक्षों अथवा पक्षियों से सहित वृक्षों से व्याप्त हैं उपशस्य ( समीपवर्ती स्थान जिनमें ऐसे है । इसीप्रकार जो स्वर्गभवनों के समान अतिधिप्रार्थनमनोरथ हैं । अर्थात् जिसप्रकार स्वर्गभवन, अतिथि— कुशनन्दन कल्याण व वृद्धि) की प्रार्थना का है मनोरथ जिनमें ऐसे हैं, अथवा तिथि ( दिन ) की प्रार्थना का मनोरथ किये बिना ही वर्तमान हैं उसीप्रकार ग्राम भी अतिथियों साधुओं अथवा अतिथिजनों की प्रार्थना का है मनोरथ जिनमें ऐसे हैं जो आकाश के मार्ग समान नक्षत्र द्विजराजी है। अर्थात्-जिसप्रकार आकाश मार्ग नक्षत्रों (अश्विनी व भरणी आदि नक्षत्रों या ताराओं और द्विजों (पक्षियों) या द्विजराज (चन्द्र) से शोभायमान हैं. उसीप्रकार ग्राम भी नक्षत्र-द्विजों— अर्थान् सत्रिय और ब्राह्मणों से शोभायमान नहीं हैं किन्तु शूद्रों की बहुलता (अधिकता) से शोभायमान हैं। जो कमनीय कामिनियों के कुल कलशों के समान भतृ कर संबाधसद हैं । अर्थात् – जिसप्रकार कमनीय कामिनियों के कुचकलश भर्तृकर संबाध (पति के करकमलों द्वारा किये जानेवाले मर्दन को सहन करते हैं उसीप्रकार ग्राम भी भर्तृ कर संबाध -राजा द्वारा लगाए हुए टेक्स की संबाध (पीड़ा ) --- को सहन करने हैं। 1 } कृषि करने वा यन्त्र विशेष । २
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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