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________________ यशस्तिलक चम्पूकाव्ये क्रान्तकामिनीकपोलप्रमस्वेदापनोदमन्दस्यन्वपताकाञ्च पचैः रचितापराधविरुद्वामाचरणानवनिलिम्पनी कनिकाय कृतकैताक कुतूहलित विस्मितसिद्धयुवतिभिः अतिषिध 'संचरस्तुतुन्दरीकरचापलुस काण्डचि मकरसम्भ स्तम्भकोत्तम्भितमणिमुकुरमुखावलोकना कुलकल केडिदियौः स्वस्तिरथविमानवाहू न संबाधानुबन्धिभिः अग्रश्न रत्नधयनिचिका चमकलश विसरविरल किरणआज मितान्तरिक्षलक्ष्मीनिवास विचित्रसिचयोलोचैः, अमृतकरात पस्पर्श ब्रुवचन्द्रकान्तसपप्रणा लोकलजाकासार सिममान त्रियद्विद्वारिणी विरह वैश्वानर कर्मम मेर शरीरयष्टिभिः भद्दिमधामसृष्णिसंधुक्षित विमरकान्तकि पिरिपर्यन्तस्फुरस्कृशानुक्रणविकास्यमानामरमुनिमध्याह्नदीपैः, अमलका मलासार विलस एकल हंसमिद्विगुणदुकुलांशु कमैजयन्तीसप्ततिभिः उपरिंतनतल उठा के बालकभयपकाय मानजय विजयपुर - स्सर पवनाशनैः उपान्तस्तुपभिपतत्पारावतपशिखरों पर वायु से मन्द मन्द फहराई आनेवाली ध्वजाओं के वस्त्रपल्लव निरन्तर आकाश में बिहार करते हुए विद्याधरों के समूह में प्रविष्ट हुई विद्याधरियों के गालों पर उत्पन्न हुए श्रमबिन्दुओं को दूर करते हैं। किये हुए अपराध ( अन्य स्त्री का नाम लेना आदि दोष ) से कुपित हुई कमनीय कामिनियों ( देवियों ) के चरणकमलों में नम्रीभूत हुए देवों के स्तुतिपाठक समूह द्वारा की हुई धूर्तता के देखने से पूर्व में आश्चर्य चकित हुई पश्चात् लञ्जित हुई और कुछ हँसी को प्राप्त हुई हैं सिद्धयुवतियाँ (अणिमा व महिमा आदि गुणशाली देवविशेषों की रमणीय रमणियाँ - देवियाँ जहाँपर ऐसे हैं । जहाँपर ध्वजाशाली स्तम्भों (खंभों ) के चित्र, प्रस्तुत चैत्यालयों के समीप संचार करनेवाली देवियों के कपड़ों की चपलता द्वारा नष्ट कर दिये गये हैं । उन रलमयी दर्पणों में, जो कि बहुत से ध्वजावाले खंभों के ऊपर स्थित छोटे खंभों के ध्वजादंडों पर बँधे हुए थे, अपना मुखप्रतिविम्ब देखने में संलग्न -- आसक्ती-मनोहर क्रीजावाले देवों के स्खलित ( नष्ट ) वेगवाले ( रुके हुए ) विमान वाहनों ( हाथी -आदि ) के लिए, जो चैत्यालय, निरन्तर कष्ट देने में सहायक थे (क्योंकि मणिमयी दर्पणों में अपना मुखप्रतिविम् देखने में आसक हुए देवरों द्वारा उनके संचालनार्थ प्रेरणा करनी पड़ती थी । जो ऐसे प्रतीत होते ये मानों— अनेक प्रकार के नवीन रत्न-समूह से जड़ित सुवर्ण कलशों से निकलकर फैलती हुई अविच्छिन्न किरणों की श्रेणी द्वारा जिन्होंने आकाशरूप लक्ष्मीगृह के पंचरंगे वस्त्रों के चदयों की शोभा उत्पन्न कराई है। जिनमें चन्द्रमा की किरणों के स्पर्श द्वारा द्रवीभूत हुए-- पिघले हुए चन्द्रकान्तमणियों के प्रणाली -- जल निकलने के मार्गों से उछलते हुए जल समूह की प्रचुर जल वृष्टि द्वारा, विद्याधरियों की विरहरूप अभि की बाह से श्रङ्गाररूप हुई शरीरयष्टि सींची जा रही हैं। जिनमें सूर्य किरणों के स्पर्श से प्रज्वलित हुए. सूर्यकान्त मणियों के उपरितन भागों से उचटने वाले अभि के स्फुलिङ्गों— कणों द्वारा, सप्तर्षियों के मध्याह्नकालीन दीपक जलाए जारहे हैं । जिनमें निर्मल स्फटिक मणिमयी ऊपर की भूमियों पर कीड़ा करते हुए कलहंसों की श्रेणी द्वारा उज्वल दुपट्टों व शुभ्र ध्वजाओं के वस्त्र समूह दूने शुभ्र किये गये हैं । जिनमें ऊपर की भूमियों पर पर्यटन करते हुये मयूर बच्चों के डर से ऐसे सर्प, जिनमें जय व विजय ( आकाश में रहने वाले सर्प विशेष ) प्रमुख हैं, शीघ्र भाग रहे हैं । जिनमें, ऐसे धूप के बुओं का, जो कि समीपवर्ती कृत्रिम पर्वतों के ऊपर आती हुई कबूतर पक्षियों की श्रेणियों से दुगुनी विवाले किये गये हैं ( क्योंकि जंगली कबूतर धूसर ( धुमैले) होते हैं ), विस्तार २. 'मुखावलोकन के लिकल दिनांकः" इति क्योंकि सटीक मु० प्रति में 'जयविजयपुर १२ १. अतिविधरतिच' इति ह. लि. रादि ( च, घ) प्रतिषु पाट सटीक मुद्रित प्रती पाटः । ३. उक्त पाठ ह० लिं० सहि० ( रा ग च) प्रतियों से संकलन किया गया है। नाशनैः, ऐसा पात्र हैं, जिसकी अर्थ- संगति सही नहीं बैठती थी— सम्पादक
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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