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________________ प्रथम आश्वास रिचत्रशिखण्डिमालीस्तूयमानपुण्याचरौरभ्वाचयीकृतसतिसगावतायरिभिः पारारिभिरपरेण चान्नानेन भमणसंप्रेनोपास्यमानपादमूला, सौध दिवसे तदेव पुरमनुसितीर्घः, घमघोरामकस्वनाकर्णनानुपयुक्तमनःप्रणिधानः, सतीथ्यपि नगरे महतीषु वसतिषु पौराणामतीव प्राणिवथे साधा बुद्धिरित्यवधिना बोधेनावबुद्धशावधीरितपुरप्रयेशः, पूर्वस्या पदिशि निवेशिताःप्रकाशः, सुरसुरभिलपनलूनाप्रभागमिव समशिनारदेशाभोगम् अमृतसिक्तोदयमिव स्निग्धदक्षवलयम, इन्द्रनीलकुस्कीलमिव लोचनोल्लासिष्ठीलम, मन्योन्यविभवसंभावनोबापायमिव परस्परसमतिकरितकिशलयम्, अखिलविष्टपोल्पत्तिस्थानमिव गर्भितप्रसूतप्रवर्धमानमहीमहाकावस्थानम. *अनामनिमालीविहिवसहसवासानरोधमिव निर्दलितनिखिलायाधम, इतरेतरश्रीमत्सस्तिमिव सकल शोभासंरम्मोचितम्, जिनका पवित्र आचार चित्रशिखण्डियों'–मरीचि, अङ्गिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु और वसिष्ठ ऋषियों-की मण्डली द्वारा प्रशंसा किया जारहा था एवं जिन्होंने मिध्यामार्ग की उत्पत्ति रोक दी है। इसीप्रकार जिस सुदचाचार्य के चरणकमल अनूचान (द्वादशाङ्ग श्रुतधर) ऋषि, यति, मुनि व अनगार रूप चार प्रकार के श्रमण संघ से नमस्कार किये गये हैं। प्रस्तुत सुदत्ताचार्य ने उसी आगामी चैत्र शु. महानवमी के दिन उसी राजपुर नगर में संचार करने के इच्छुक होकर महाभयानक दुन्दुभि वाजों के शब्दों के श्रवणकरने से उस ओर अपनी चित्तवृत्ति प्रेरित की। 'यद्यपि राजपुर नगर में मुनियों के ठहरने योग्य विशाल वसतियाँ (चैत्यालय:आदि स्थान) है तथापि 'यहाँपर नागरिको की बुद्धि प्राणि-हिंसा में विशेष प्रवृत्त होरही है, यह बात प्रस्तुत आचार्य ने अषधिज्ञान से जानी । पश्चात् नगर-प्रवेश को तिरस्कृत करके पूर्व दिशा की भोर इष्टि-पात करते हुए उन्होंने ऐसा 'नन्दनवन' नामका उधान ( वगीचा ) देखा । जिसके शिखर देश का विस्तार सम है ( उबड़-स्थायद नहीं है) इसलिए जो ऐसा प्रतीत होता था मानों-जिसका अग्रभाग देवों की कामधेनुओं के मुखोंसे काटकर चाया गया है। जिसके पत्तों के वलय (क-आभूषण) स्निग्ध है, इसलिए जो ऐसा ज्ञात होता था मानों-जो उत्पत्ति काल में अमृत से ही सींचा गया है। जिसकी शोभा नेत्रों को थानन्दित करनेवाली है, इससे जो ऐसा मालूम पड़ता था-मानों--इन्द्रनील मरिण का पर्वत ही है। जिसके पल्लव परस्पर में मिश्रित थे, अतः जो ऐसा मालूम पड़ता था, मानों-जिसे एक दूसरे की सम्पत्ति देखने की उत्कट श्रभिलाषा लगी हुई है। जहाँ पर ऐसे विशाल वृत्तों के छोटे-छोटे वृक्षों की स्थिति पर्तमान है, जो कि अंकुरित, उद्भूत ( उत्पन्न ) व वृद्धिंगत होरहे थे, इसलिए जो ऐसा ज्ञात होता या मानों-समस्त पृथिवीमण्डल का उत्पत्ति स्थान ही अंकुरित, उद्भूत व वृद्धिंगत होरहा है। समस्त लोक के कष्ट दूर करनेवाला होने से बह ऐसा मालूम होता था, मानों-जिसने आकाशसम्बन्धी सप्तर्षि मण्डली या चारण ऋद्धिधारी मुनिमण्डली के साथ संगति करने का आग्रह किया है। जो समस्त छह ऋतुओं (बसन्त-आदि) की शोभा (पुष्प-फलादि सम्पत्ति की प्रकटता) के आरम्भ योग्य है। मर्थात्-जहाँ पर समस्त ऋतुओं की शोभा पाई जाती है। अतः जो ऐसा ज्ञात होता था, मानों-परस्पर की शोभा देखने में ईर्ष्या-युक्त ही है। * 'अनशनमुनिमण्डलीसहसवासम्यवहारमिब' इति ह. लि. सटि, (क) प्रतो पाठ: परन्तु इ. लि. (ख, ग,) प्रतियुगले 'अनशनमुनिमजली' इत्यादि मुरित सटीक प्रतिवत् पाठः 1 विमर्श-ह. लि. (स, म) प्रतियुगालस्य एवं मुदितसटीकपुस्तकस्य पाठः विशेषशुद्धः श्रेष्ठश्च -सम्पादक १. तथा थाह धुतसागरः मूरि:--मरीचिरनिरा अत्रिः पुलल्यः पुलहः क्रतुः । वसिष्टश्चति सप्त ने अयाचित्रशिण्डिनः ॥१॥
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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