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यशस्तिलक चम्पूकाव्ये
पतिशास्त्रैरिव प्रकाशितशस्योगतीर्थोद्योगैर मग भोगैरिव निरुपमे वर्ष नवम पविलैरिव बिजू रिसरजोभिरखिछद्वीपदी पैरव समोपचार महा बाहिनी प्रवाहैरिव वीतस्पृहाप्रकृतिभि: सक्कुसुमैरिव निसर्गगुणप्रणयिभिः कुमारश्रमणमनोभिरिवाज्ञातमनसद्वै निखिलभुवनभद्रान्तरायनेमिभिर्मू छोसरगुणोदाहरणभूमिभिमतचर्वण नितजगदानन्दैः समक्ष बारिशलता कन्दै
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जिन्होंने नीतिशारूों के समान शम, योग व तीर्थों में उद्योग प्रकाशित किया है । अर्थात्जिसप्रकार राजनीतिशास्त्र. शम ( प्रजा के क्षेमहेतुओं- कल्याण-कारक उपाय ), योग ( गैरमौजूद धन का लाभ ) तथा तीर्थों ( मंत्री, सेनापति, पुरोहित, दूव व अमात्य आदि १८ प्रकार के राज्याङ्गों की प्राप्ति में उद्योग प्रकाशित करते हैं उसीप्रकार जिन्होंने राम, योग व तीर्थो में उद्यम प्रकट किया था । अर्थात्जिन्होंने ज्ञानावरणादि कर्मों के क्षय करने में, ध्यान शास्त्र के मनन में और अयोध्यादि-तीर्थों की वन्दना करने में अपना उद्यम प्रकाशित किया है। जो आकाश विस्तार सरीखे उपलेप-रहित थे । अर्थात्1 जिसप्रकार आकाश के विस्तार में उपलेप ( कीचड़ का संबंध ) नहीं लगता, उसीप्रकार जिनमें उपलेप ( पाप-संबंध या पश्मिह-संबंध ) नहीं था। जिसप्रकार वर्षा ऋतु के दिन विदूरित- रज ( धूलि-रहित ) होते हैं उसीप्रकार वे भी विपूरित-रज थे । अर्थात् -- ज्ञानावरण व दर्शनावरण कर्मों से रहित अथवा चपलता से रहित थे। जिनका चरित्र सूर्य-समान तमोपह था । अर्थात् जिसप्रकार सूर्यमण्डल तमोपट ( अन्धकार विध्वंसक ) होता है उसीप्रकार उनका चरित्र भी तमोपह ( अज्ञानांधकार का विनाशक ) था । जो महा नदियों (गंगा व यमुना आदि ) के प्रवाह सरीखे धीत स्पृहा प्रवृत्ति थे। अर्थात्-जिसप्रकार महानदियों के प्रवाद बीत-स्पृह होते हैं। अर्थात् चैतन्य-रहित - जड़ात्मक (ड और ल का अभेद होने सेजलात्मक ) होते हैं उसीप्रकार वे भी बीस- स्पृहा प्रवृत्ति थे । अर्थात् - जिनकी विषयों की लालसा की प्रवृधि नष्ट हो चुकी थी। जो स्वभाव से उसप्रकार गुणप्रणयी थे। अर्थात् वे उसप्रकार स्वतः गुण ( शास्त्र ज्ञान) में रुचि रखते थे जिसप्रकार पुष्प मालाओं के पुष्प स्वतः गुरु प्रणयी ( तन्तुओं में गुथे हुए ) होते हैं। जो कुमार काल में दीक्षित हुए साधुओं के हृदय-समान मदन फल के सङ्ग से रहित थे। अर्थात्जिसप्रकार कुमार दीक्षितों के हृदय ( हाथों में वैवाहिक कङ्कण-बन्धन न होने के कारण ) मदनफल -- काम विकार — के संगम से रहित होते हैं उसीप्रकार के भी मदन-फल ( सन्तान या धतूरे के फल ) के सङ्गम से रहित थे । अर्थान् - बाल ब्रह्मचारी थे। जो समस्त पृथिषी मंडल के भद्रकार्यो' ( बल, धन, सुख व धर्म की युगपत्प्राप्ति) में उत्पन्न हुई बिष्न बाधाओं को नष्ट करने के लिए उसप्रकार समर्थ है जिसप्रकार धाराएँ a संबंधी विन्न बाधाओं को ध्वंस करने में समर्थ होती हैं। इसीप्रकार वे तपस्थी मूलगुणों (५ महाव्रत, ५ समिति, ५ इन्द्रियों का वशीकरण केशलुश्चन और ६ आवश्यक, निरम्बरस्व ( नम रहना स्नान न करना, पृथिवी पर शयन करना, दाँतोन न करना, खड़े होकर आहार लेना, और एक बार आक्षर लेना इन २८ मूलगुणों— मुख्य चारित्रिक क्रियाओं - और उत्तर गुणों ( उत्तम क्षमादि दश लक्षण धर्मोका 'अनुष्ठान, दश हजार शील के भेद, और २२ परीपद्दों का जय आदि) को धारण करने के लिए दृष्टान्त भूमि थे। अर्थात स्थान भूत थे। जिन्होंने धर्मोपदेशरूप अमृत वृष्टिद्वारा समस्त पृथिवीमण्डल के प्राणियों को सुखी बनाया हूँ। जो ब्रह्मश्वर्यरूप लता की मूल समान I
* 'अनमनाभोरि' इति ६० लि० प्रतियु ( क, ग, व ) पाउ:, आकाशविस्तारैरित्यर्थः । १ - मई व धर्म सुधर्मो युग टि. ( ख ) प्रति से संकलित — सम्पादक
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