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प्रथम श्राश्वास
अश्विस्समस्तश्नुतघरोखरणाविधिपणे निररिसवितानातीविषचनसमनोविनिर्मितावसंसभृषित भव्यश्रोत्रैः कैश्चिदात्मेतरतर्ककर्कशोदकवितकोविकास्यमानभुवनाशायरासपीः, कैश्चिन्नध्यानव्यकाव्योपदेशकास्वान्दोच्छ. मागच्दतुच्या कल्याणकारनव्याख्यानमण्डपानी?; कैश्चिवजनेन्चान्द्रापिस (श) लपाणिनीयाघनेकव्याकरणोपदिश्यमानशब्दार्थसंबन्धवैवाधीसरिस्मालिसशिष्यशेमुषीपदविन्यासायनीकैरपरश्च तप्सद्विधानवद्यमतिमन्दाकिनीप्रवाहाबागोरितान्तेवासिमामसवास:प्रसः सिससिपरिव परिमुषितकषायकालथ्यश्चित्रातिपरिव मदरहितः कोकनदकानमैरिव प्रतिपन्न मित्रभाः विश्वभरेश्वरैरिख प्रणीतषिमहरूण्डैस्मशहरिष परित्यक्तदोषैः कामिनीमनैरिम प्रकटितपरलोकागमकामै
उनमें से कुछ ऐसे थे जिन्होंने अपनी बुद्धि समस्त द्वादशाङ्ग शास्त्र रूप पृथिवी या पर्वत के उद्धार करने में ऋषभदेव या विष्णु सरीखी प्रम्बर ( तीक्ष्ण ) कर ली थी। उनमें कुछ ऐसे थे जिन्होंने ऐसे वचन रूप पुष्पों द्वारा, जो तिरेसठ शलाका के महापुरुषों के चरित्रग्रन्थों के निरूपण की चतुराई से सहित
और पवित्र ( पूर्वापर-विरोध-रहित ) हैं, रचे हा कार्याभरणों से भव्य- पुरुषों के श्रोत्र अलङ्कृत किये धे। उनमें कुछ ऐसे थे जिन्होंने जनदार्शनिक व अन्य दार्शनिकों (जैमिनीय, कपिल, कणाद, चार्शक और बौद्ध) के दर्शनशास्त्रों का विषमतर उत्तर विचार ( गम्भीर बान) प्राप्त किया था, जिसके फलस्वरूप वे, दार्शनिक तत्वों के युक्ति-पूर्ण कथन रूप सूर्य द्वारा तीन लोक के हृदय कमल प्रफुल्लित कर रहे थे। उसमें से कुछ ऐसे थे जो, नवीन और प्राचीन साहित्य संबंधी तात्त्विक व्याख्यान देते थे, इसलिए उनकी व्याख्यान कला रूपी पुष्प वाटिका के काय कुसुमों का यथेष्ट संचय करने के हेतु आई हुई बहुतसी प्रवीण शिष्य मण्डली से उनके व्याख्यान मंडप समृह खचाखच भरे रहते थे। कुछ ऐसे थे जिन्होंने पेन्द्र (इन्द्रकवि रचिव ), जैनेन्द्र (पूज्यपाद-रवित जैन व्याकरण ), चान्द्र (चन्द्रकवि-प्रणीत ), आपिशल (आपि शालि-कृत) श्रीर पारिएनीय-श्रादि अनेक व्याकरण शास्त्रों द्वारा निरूपण किये जानेयाले शब्द और अर्थ के संबंध की चतुराई प्राप्त की थी और उस चतुरता रूपी गंगा नदी द्वारा जिन्होंने शिष्यों की बुद्धि संबंधी शब्द रचनाभूमि निर्मल की थी। इसीप्रकार जिस मुदत्ताचार्य के चरण कमल दूसरे ऐसे तपस्वियों द्वाग पूजे गये थे, जिन्होंने जन-उन जगप्रसिद्ध विद्याओं (ज्योतिष, मन्त्रशास्त्र, आयुर्वेद, स्त्री-पुरुष-परीक्षा, रस्त्र-परीक्षा, गजविद्या और अश्वविद्या (शालिहोत्रादि-शास्त्रों) के अध्ययन-मनन से उत्पन्न हुई निर्दोष बुद्धि-मन्दाकिनी (गंगानदी) के प्रवाहों में अवगाहन करने के फलस्वरूप शिप्यों के मनरूप यलों के विस्तार उज्वल किये थे। जिन्होंने, कपाय कालुप्य-क्रोध, मान, माया घ लोभ रूप कषायों की कलुषता (पाप प्रवृत्ति) को उसप्रकार दूर किया था जिसप्रकार शुक्ल वरून कपाय-कालुष्य (नीली रसादि संबंधी मलिनता) से दूर होते हैं। जो उसप्रकार मदों (ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप व रूप इन पाठ प्रकार के अभिमानों ) से रहित थे जिसप्रकार चित्र में उकीरे हुए हाथी मद-रहित (गण्डस्थलों से प्रवाहित होने वाले मदनल से रहित) होते हैं। जिन्होंने मित्रभाष (विश्व के साथ मैत्रीभाव) को उसप्रकार स्वीकार किया था, जिसप्रकार रक्त कमलों के बल मित्रभाव-सूर्य के उदय को-वीकार करते हैं। अर्थात-अपने विकसित होने में सूर्योदय की अपेक्षा करते हैं। जिन्होंने विग्रह-दण्ड ( काययलेश ) का उसप्रकार भली-भाँति अनुष्ठान किया था जिसप्रकार चक्रवर्ती, विग्रह-दण्ड अर्थात्--युद्ध व सैन्य संचालन का भली भाँति अनुदान करते हैं। अर्थान-शत्रु के साथ सन्धि नहीं करते। जो दोपों रागादि या व्रतसंबंधी अतिचारी) से बस रहित
से देवताओं के शरीर दोपों ( वात, पित्त व कफ) से रहित होते है। जिन्होंने परलोक-यागम ( दशाध्यायरूप मोनशास्त्र या स्वर्ग-प्राप्ति ) में उसप्रकार काम (प्रीति) प्रकट किया है जिसप्रकार बेश्यायों का समूह परलोकागम ( कामी पुरुषों के श्रागमन ) होने पर काम ( रति विलास की लालसा) प्रकट करता है।