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________________ ४५ यशस्तिलकचम्पूकाध्ये इच्छापरी*संदोहवस्मृप्तापगाप्रमाहापहसितयशःफेलपटापाण्डरोपलान्तकदेशावर सेतुबन्धमेखलालकहरामेखलाकुलकहरनिबीकिनारीगणीश्रमामयादनियमनामशुचिरामाविगीतवापाटकन्दरादा मनहरधराधरनितम्बाखराधनितम्बारम्बरस्यपदपथनस्थानमन्धरितगतिकीर्तिमन्दाकिमीतरङ्गद तुरंदरपदनाचा तुहिनीचूलिकामालातहिनशैललिकाचक्रयालविलासीनि गायन्ति पुणविजृम्भितानि जनपगोप्यः ॥ स भगवान् पुण्यपानीयवों कोऽमपूर्वः पर्जन्य विनाविनेयमानसस्पप्रसराः पुरस्थानीयहोणमुखकाईटिकसंप्रनिगममामविभः सममिनरक्ष्यन्विटरमाण:: प्रणतसमलहिणालमौलिमपडलीभववरणनखरसोस्करः, शिवचरणकरणनयनिरूपणगुणहारविहितालभूषणैः एवं वे (गोपियाँ ), ऐसी सेतुबन्धपर्वत ( दक्षिणदिपर्व) की कटिनी-समूह की गुफा की मर्यादा करके या व्याप्त करके प्रस्तुत आचार्य का गुणगान करती हैं, जिसमें शिलाओं के मध्यवर्ती प्रदेश, ऐसे यश-समूह के फेन-पटल समान शुभ्र है, जो कि सेतुबन्ध पर्वत की गुफा के समूह-समान विस्तृत अमृतनदी के प्रवाह को तिरस्कृत ( तुलना ) करता है। इसीप्रकार वे गोपियों, ऐसे अस्ताचल पर्वत के तट की मर्यादा करके या व्याप्त करके प्रस्तुत आचार्य का गुणगान करती हैं, जिसकी गुफा ऐसे पंचमाविरागपूर्ण गीतों से शन करती हुई शोभायमान होरही है, जो (गीत ) कटिनी-समूह की गुफाओं में स्थित देवियों के समूह द्वारा गाए जानेकाले कम्गा, जितेन्द्रियता, पंचमहाव्रत ष सुदत्तश्री का नाम इनसे पवित्र हैं। इसीप्रकार वे गोपियाँ ऐसे हिमालय पर्वत के शिखर-मण्डल की मर्यादा करके या व्याप्त करके प्रस्तुत आचार्य के गुण-विस्तार गाती हैं, जिसके गुफारूपी मुख ऐसी कीर्तिरूपी मन्दाकिनी (गंगा) की तरङ्गों से उन्नत दन्तशाली हैं, जिसकी गति हिमालय पर्वत के विस्मृत तटों पर वर्तमान ऊँचे नीचे (ऊबड़खावड़) मार्ग पर प्रस्थान करने से मन्द (धीमी) पड़गई है। उस जगत्प्रसिद्ध भगवान् (इन्द्रादि द्वारा पूज्य ) ऐसे सुदचाचार्य ने संघ-सहित विहार करते हुए 'नन्दनवन' नामका राजपुर नगर संबंधी उद्यान (बगीचा) देखा। कैसे हैं सुदनाचार्य ? जो पुण्य रूप जलवृष्टि करने के कारण अनिर्वचनीय व नवीन मेघ सरीखे हैं। अर्थात्--उनसे उसप्रकार पुण्यरूप जल की वृष्टि होती थी जिसप्रकार मेघों से जल-वृष्टि होती है। वे (सुदत्ताचार्य) ऐसी भूमियों को, जिनमें विनयशील भव्यप्राणी रूप धान्य का विस्तार पाया जाता है और जो पुर (राजधानी), स्थानीय ( भाठसौ प्रामोसे संबंधित नगर विशेष), द्रोणमुख ( चार सौ ग्रामों से संबंधित नगर), काटिक (दो सौ ग्रामों से संबंधित नगर ), संग्रह (दश प्रामों से संबंधित नगर), और निगमग्राम (धान्योत्पत्तिवाले गाँव) इनसे संबंध रखती है, आनन्दित करते हुए राजपुर की ओर विहार कर रहे थे। जिसके चरणोंके नखरूप रत्नसमूह नमस्कार करते हुए राजाओंके मुकुटों को अलकृत करते थे। जिसके पादमूल (चरणकमल), ऐसे प्रचुर पारासरियों (तपस्वी साधुओं) द्वारा नमस्कार किये गये थे, जिनमें कुछ ऐसे थे, जिन्होंने सम्यग्चारित्र का पालन, नयचक शास्त्र का उपदेश, और ज्ञान-ध्यानादि गुणरूपी मोतियों की मालाओं से अपने वक्षस्थल-मण्डल विभूषित किये थे। *'संदोहवइदमृतापगा' इति ह. लि. सटि (क, ग, च) प्रतिषु पाठः । १. पाराशरिणः तपस्विनः इति इ. लि. ( क घ ) प्रतिषु टिप्पणी वर्तते । एवं भिक्षुः परिबाट कर्मन्दी पाराशर्यपि मस्करी इत्यमरः ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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