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________________ प्रथम आवास 'अवतानकालायसतलिफाकृविसलसिमस्तकदेश हृषीकेश, न समीपमदयाचप्रहमहिलविनहायाः कुटिलकुन्तलाविलविलोचनधुम्बनानाम्। इति मुचुन्स, अविरलारलोल्लासमापनजाल भुजङ्गमलोकपाल, न संगमागमनमनस्पकल्पसंकल्पितप्राणिसाषास्तुण्डीराधरामृतानाम्' इति कुम्भीनसा थानभिनन्दन्ती, मरुमरीचिवीचिनिचयवन्यमामा मृगाङ्गनेव पास्यवस्तिस्य वसुमतीपतेर्मतिरिव निखिलमविलयोन्मीलिसान्तरालोफलाधनस्य मुनेर्मनीषत्र, च न क्वविदयापि मानासि स्थितिम् ॥ यस्य च सुकृप्तिमस्तपस्तपनकरकाश्मीरकेसरारुणितस्तुति मुखरमुरयोचिदलकवलयादा दिवितादृश्याचलदीसंदोहा अब श्रीनारायण की भर्त्सना करती हुई कीर्ति कन्या कहती है-है श्रीनारायण ! तेरा मस्तक पुराण पुरुष होने के फलस्वरूप 'अधोमुखवाली लोहे की कड़ाही के आकार वाली गंजी खोपड़ी से व्याप्त है। इसलिए तू ऐसी मेरे कुटिल केशों से मिले हुए नेत्र संबंधी चुम्बनों के समीवती होने योग्य नहीं है, जिसका शरीर दोनों कर कमलों से निर्दयता पूर्वक केशों के प्रहण करने में श्राग्रह करता है। इसीप्रकार प्रस्तुत कीर्तिकन्या धरणेन्द्र ( नागराज ) का तिरस्कार करती हुई कहती है-हे शेष नाग ! तेय हजार फणोंवाला मुख-समूह घने ( तीन ) विषसे व्याप्त है । तुझे भी ऐसी मेरे जिसका जीवन ज्योतिषियों ने पाण्यात सरकार पर्वत (त्यागी, सा है, पके हुए विश्रफल सरीखे श्रोष्ठों के अमृत की प्राप्ति नहीं होसकती। इसीप्रकार प्रस्तत सदत्ताचार्य की कीतिकन्या उसप्रकार धोख हुई किसी स्थान पर आज तक भी नहीं ठहरी जिसप्रकार मृग-तृष्णा की तरङ्ग-पक्ति द्वारा प्रतारित की जाने वाली ( धोखा खाई हुई ) हिरणी किसी स्थान पर स्थित नहीं रहती। इसीप्रकार वह आज तक भी किसी स्थान पर उसकार स्थित नहीं हुई जिसप्रकार राज्य पद से भ्रष्ट हुए राजा की बुद्धि किसी स्थान पर स्थित नहीं रहती। इसीप्रकार यह उसप्रकार किसी स्थान पर स्थित नहीं हुई जिसप्रकार ऐसे मुनिका, जिसको समस्त पापरूपमल ।घातिया कर्म) के क्षय होने पर विशुद्ध आत्मा से केवल शान उत्पन्न हुआ है, केवल-शान किसी एक पदार्थ में स्थित नहीं रहता । * . अनेक देशों की गोपियाँ, विशेष पुण्यशाली अथवा विशिष्ट विद्वान जिस मुदत्ताचार्य के गुण विस्तारों को, जो कि हिमालय पर्वत के शिखरमण्डलों पर शोभायमान होरहे है, तीन लोक में विख्यात ऐसे उदयाचल पर्वत की गुफा-समूह की मर्यादा करके या व्याप्त करके गाती है. जिसमें सपरूपी सूर्य की किरणरूप काश्मीर केसरों द्वारा स्तुति करने में पाचाल हुई देवियों के केरामाशों की श्रेणी राञ्जत ( लालवर्णवाली ) की जारही है। आदि शास्त्रों की स्वाभ्याय-आदि निधियों को नहीं आनता और जो रात्रि में अपराध करता है, उसकी कीर्ति नहीं होती। क्योंकि मुठो कीर्ति श्रेयस्कारिणी नहीं होती। -इसकी ध्वनि-जो साधु गंजे मस्तक को धारण करता हुआ भी दौलत नहीं होता। जो मानव युवावस्या में प्रविष्ट होकर भी तपश्चर्या में तत्पर नहीं है। जो इन्द्रियों द्वारा प्रेरित हुआ केश-उधन के अवसर पर उसप्रकार अपनी कुटि गिराता है, जिसप्रकार नट रजस्थली-नाव्यभूमि-पर प्राप्त होकर अपनी भ्रकुटि संचालित करता है। एवं जो अपने केशलचन के अवसर पर अXट व सर्जनी को ग्रहण करने में समर्थ नहीं है, उसकी कीर्ति नहीं होती। २- जो मुनि मधुरभाषी न होता हुआ मुम्ब मे विषतुल्य फट्रक वचन बोलता है और कामी पुरुषों की रक्षा करता है, उसकी कीर्ति नहीं होती। *- उपमालंकार व अन्तर्दापक-अलंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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