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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये पतिविदितचापललामत, वात, न पितः स्थिरनायकसमागमाधिन्याः प्रीतिविलसितानाम्' इति मभस्वन्तम्, भनवरतमधुपानपरिक्युतमतिप्रकाश विशेश, न गोचरस्वरानिमुधारसास्वादविस्फुरित श्रवणालिपुटायाः सहालाएगोष्ठीनाम्, इति नहावरपिसरम्, 'अनुचितबिताएकण्ठपीठ शितिकण्ठ, न भाजरममनियरियायाः पृथुजघनसिंहासनारोहणानाम् इति कृत्तिवालपम्, अनि पदतचरणनखण्डमयूख न प्रभुः प्रसभपुष्पप्रभाषरन्यसंभोगायाः करसंवाहमसुस्वानाम्' इति हरितवानानम्. ' अझयक्षयामयमंशयित मोरित बुधतात, न शरणमगणितमाखसौभाग्यभापिसजन्मटमनायाः प्रबन्धनिधुवनविधीनाम्' इतिनिशाइर्शम्.
अव वायुदेवता का तिरस्कार करती हुई कौति कन्या कहती है-हे वायुदेव ! तुम ऐसे चखल कुल में उत्पन्न हुए हो, जिसकी चपलता विशेप विख्यात है, इसालए तुम मेरी प्रेम-प्रवृत्तियों के बलम नहीं होसकते: क्योंकि में तो स्थिर प्रकृतिशानी पति को प्राप्त करने का प्रयोजन रखती हूँ। अब कुवेर के अनादर में प्रवृत्त हुई कीतिकन्या कहती है-ह कुवेर ! निरन्तर मद्यपान करने से तेरी बुद्धि नष्ट होचुकी है. इसलिए तू भी ऐसी मेरे साथ की जानेवाली कान्त भाषए-गोष्ठियों के योग्य नहीं है। जिसके कर्णरूप अञ्जलिष्ट चतुर पालाप ( वक्राक्त) रुप अमृत प्रवाह के आस्वादन करने में सदा संलग्न रहते है। अव प्रस्तुत की तिकन्या श्रीमहादेव का तिरस्कार करती हुई कहती है-अयोग्य चिता (मृतकाान) के समीप आसन लगानेवाले व नीलग्रीयाशाली हे महादेव ! तू विशुद्ध-चरित्र शालिनी मेरे विस्तीर्ण जंघारूप सिंहासन पर आरहण का पात्र नहीं है।
. अब सूर्य का अनादर करती हुई कीर्तिकन्या कहती है-हे सूर्य ! तेरे चरणों के नख दुःखकर कुष्टरोग से उत्पन्न हुई पीप-वगैरह से नष्ट हो चुके हैं एवं तेरी किरणें भी विशेप तीन है, इसलिए तू ऐसी मेरे, जिसके साथ रति-विलास करने का मुख बिशिष्ट पुण्य के माहात्म्य से प्राप्त होता है, करकमलों द्वारा किये जानेवाले पाद मईन संबंधी सुखों का पात्र नहीं है | अब चन्द्र का अपमान करती हुई कीति कन्या कहती है-हे वुध के पिता चन्द्र ! तेरा जीवन ( आयु ) अविनाशी क्षय रोग के कारण संदिग्ध है। अथान-दीर्घनिद्रा (मृत्यु) योग्य है। इसलिए तू एसा मर सा
६: ३सालए तू एसी मर साथ वीर्यस्तम्भन पूर्वक की जाने याली मैथुन कियात्रों का स्थान नहीं है, जिसके जन्मलग्न ( उत्पत्ति-मुहूर्त) के अवसर पर ज्योतिषियों द्वारा निस्सीम सुख कहा गया है।
-इससी पनि-भाव-आदि के चञ्चल कुल में उत्पन्न हुए चश्चल प्रश्नतिशाली को और सम-आगम-अर्थीराहेत मर्यात समता परिणान और अमात्म शास्त्र के अभ्यास का प्रयोजन न रखने वाले साधु पुरुष की कीर्ति नहीं होसकती।
नसका स्वनिरूपार्थ-नास्तिक सम्प्रदाय में दीक्षित होने वाले की व मद्यपान करनेवाले साधु की बुद्धि पर परदा पा जाता है। इसी प्रकार विद्वानों के मुभाषितामृत का रसास्वाद न करने वाले की और दिगम्बर साधुओं के प्रति पञ्चलिपुर न बाँधनेवाल-नमस्कार न करने वाले-का कार्ति नहीं होती।
-इसका स्वनिरूपार्ष-अपवित्र स्थान पर बैठकर स्वाध्याय-आदि धार्मिक कियाओं को करनेवाले, संगकण्ठशाली, अपने चरित्र में बार वार असिचार लगाने वाले, और सिंहों के पर्वतादि स्थानों पर निवास न करनेवाले-बनवासी न होने वाले-कार्तिभाजन नहीं होसकते।।
४-इसकी वनि-कुष्ठरोग से पीड़ित व्यक्ति के नसमात्र ( जग-सा) भी बारित्र नहीं होता। एवं मधुर पपनो भारा लोगों को मुन्न न देनेवाले की कीर्ति नहीं होती।
-सी ध्वनि-जो साधु क्षय रोगी रा ीमार रहता है, जिसकी भाहार-प्राप्ति संदिग्ध होती है, जो दूसरे को वियों के साथ मिविलास करके पुत्र उम्पा करता है, जो प्रवन्ध-निभुवन-विधि नहीं जानता। अर्थात महापुराण