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________________ प्रथम भाभास 'ममरपाण्डुरोगवशता, नाकाशः सञ्चिविरचिसकान्तस्वीकाराया: परिणयनखा पट जातसम्, भनपरासनलाशमानस मातापिरिषदिगम्तवास, न स्थानमनहासनिर्भरतश्यायाः किमहामा' इति दामोधनम् 'उल्बमबाल्यशिराशेषशरीरपरिकर निशाचर, न पदमिन्दीवस्मृणालकोमल वलवाया: सरमसालिनानाम् इति मसेयम्, 'जीर्थोवकोपरगाछिसमुरतव्यवसाय सागरालय, न समरिचरपरिचितकामनायाः काग्निविकरणोदाहरणामा प्रति प्रचेतसम, "हे अग्निदेव ! तू उत्कट पाण्डु ( पीलिया) रोग से पराधीन या पीड़ित है और हवन जानेकाली वस्तु का भक्षक है, अतः तू अपनी श्रद्धा द्वारा पति को स्वीकार करनेवाली मेरी घरमालाब पानी । इस प्रकार प्रस्तुत कीर्ति कन्या ने अग्निदेव का अनादर किया। अब यमराज को तिरस्कृत करती हुई कीविकन्या कहती है-हे यमराज । तेरी चित्तवृत्ति निर्दोषी लोक के कवलन करने को विशेष इच्छुक है और तेरा निवासस्थान वातापि- इल्वल का भाई दैत्य विशेषम रामस्य की दक्षिामिता में है; इसलिए तू कामरस से अत्यंत परिपूर्ण हृदयशालिनी मेरी कामक्रीड़ा के कलहों का स्थान नहीं होसकता"। अब नैऋत्यकोण-निवासी राक्षस का अपमान करती हुई कीर्तिकन्या कहती है-हे राक्षस ! तेरा समस्त शरीर-परिकर (हस्व-पादादि) उत्कट अस्थियों ( हरियों नसों से व्याप्त होने के फलस्वरूप तू अत्यन्त कठोर है, और रात्रि में पर्यटन करता है इसलिए नीलया के मृणाल-सरीखी कोमल बाहुलताओं से विभूषित हुई मेरे द्वारा शीघ्र किये जानेवाले गाइ-आलिजन र पात्र नहीं हो सकता । अब वरुण देवता की भर्त्सना करती हुई कीर्तिकन्या कहती है-हे वरूण ! तेरी मैथुन करने की शक्ति, वृद्धिंगत-उत्कट---जलोदर व्याधि से बिलकुल नष्ट होचुकी है और तेरा निवास स्थान समुद्र ही है: अतः चिरकाल से कामशान का अभ्यास करनेवाली मेरे साथ रतिविलास करने में उपयोगी क्रियाभोंआलिङ्गन व चुम्बनादि काम क्रीड़ाओं का दृष्टान्त नहीं हो सकता। +--इसका ध्वन्यार्थ यह है कि जो पाउरोगी है वह दूषितशरीर होने के कारण दक्षा अपात्र होने से कीर्तिभाजन नहीं होता। एवंपाणिपुट पर स्थापित की हुई समस्त परतुका भक्षण करते हुए बतन पालने वाले मुनि की ईति नहीं होतो एवं जो साधु स्व-रूचि-फ्रान्त-अस्वीकार-आत्म स्वरूप में सम्यग्दर्शन द्वारा परमात्मा को स्वीकार नहों करता, यह कीर्तिभाजन नहीं होता। २.-इसका म्यनिरूप अर्थ-निरपराधी को अपने मुख का प्रास बनाने पालबपराधी को किस प्रकार छोर सकता है। और दक्षिण दिशा में दैत्यभक्षक के समीप निवास करनेवाला शिटपुरुषों को सिकार छोड़ सकता है ! और अगासिबों के प्रति अनुराग प्रकट न करनेवाले की कीर्ति किसप्रकार होसकती है। -वन्यार्थ-जिसका शरीर अषमा मात्मा, मामा, मिथ्यात्व और निदान इन तीन पल्मों से विशwt और जो निशायर ( रात्रिभोजी), उसकी कीर्ति विसप्रकार हो सकती है। अपित नही होसम्ती । ४-इसकी पनि अलोदर म्याधि से पोषित होने कारण पानी न पौनेवासे और अपनी बाबा के प्रति अनुराग प्रदर्शित न करने वाले की कीर्ति नहीं होती । इसीप्रकार जो लक्ष्मी का स्थान है। अर्थात--जो परको सम्परता के कारण निर्भन्ध ( निष्परिभही) नहीं होता और काम-स्त्र अति---विशेष रूप से जिन-शासन बम्पास की रा, उसकी कीर्ति किस प्रकार हो सकती है। एवं घिसकी विसति आस्मोजाति से विमुख होती हुई पंधिोलियों में शव है, उसकी कीर्तिलिसप्रकार हो सकती है। अपि नही होसकी।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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