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________________ यशस्तिलकचम्पूकान्ये निसांत्यागपती स्वयंवर वरणार्धमादिदेव कीर्तिपतिवरा भुवनान्तराणि विहान्सी 'जरस जराजनितजयस्खलन कमलासम, म खलु समसवं मे निखिलमगमगरसागरविहार कृतहलिन्याः सहचरकर्माणि कर्नम्। इति पितामहम्, 'महत्यापतिपरिमहललितबापुरतिमुवाचरानेवनीक्षण अतकरण पौलोमीरमण, नाईसि प्रयासहरुपितायाः करजराजिपाटनप्रवामपनानुनयनानि विधानम्, इति मावस्मनिया, इसी प्रकार जो (कीति-कन्या) स्वभाव से दूसरों के चित्त को प्रसन्न करने की चतुराई रखती है'। एवं जो स्वयं पति को स्वीकार करने के हेतु प्रेरित हुई ही मानों सर्वत्र लोक में पर्यटन कर रही है। जिस सुदत्ताचार्य की कीतिकन्या ने निम्नप्रकार दोषों के कारण ब्रह्मा व इन्द्रादि को तिरस्कृत करते हुए उनके साथ विवाह न करके समस्त लोक में संचार किया। 'हे विशेष वृद्ध ब्रह्मा ! वृद्धावस्थानश तेरी शीघ्रगमन करने की शक्ति नष्टप्राय होचुकी है. इसलिए तू समस्त पर्वत, नगर व समुद्रों पर विहार करने की उत्कण्ठा रखनेवाली मेरे साथ विहार करने में समर्ध नहीं है। इसप्रकार प्रस्तुत कीतिकन्या ने ब्रह्मा का तिरस्कार किया। "हे देवताओं के इन् ! 'अहल्या तापसी के पसि-गौतमऋाप - की पत्नी अहल्या के साथ व्यभिचार दोष के फलस्वरूप गौतमऋषि की सापवरा तेरे शरीर में पूर्व में युवातमुद्रा-एक हजार योनियाँ उत्पन्न हुई थी। पश्चात् वे ही अनुनय विनय करने के फलस्वरूप हजार नेत्ररूप परिणत हुई थी अतः भूतपूर्व हजार भगों के धारक! जत्पन हए हजार नेत्रों के धारक और ह क्षतकरण । अर्थान-उक्त योनिमुद्रा कफ फलस्वरूप जननेन्द्रिय से शून्य एवं ह पौलोमी-रमण ! अर्थात्-ई पुलोम की पुत्री के स्वामी ( पति । पिसा के समान पूज्य श्वसुर के पातक ह देवेन्द्र ! प्रेमकलह से वापत हुइ मुझ तुम अपनी ऐसी जननेन्द्रिय द्वारा, जो मानोंमेरी नल-भणी द्वारा फाड़ दीगद है, प्रसन्न करने में समर्थ नही हो, क्योंकि तुम सर्वात भगाकार होने के फलस्वरूप जननेन्द्रिय शून्य हो। इसप्रकार सुदसश्री की कीतिकन्या द्वारा इन्द्र तिरस्कृत किया गया। गि कहलाता है। परन्तु यह अविबाय-मण धर्म-गये के सोग की तरह सर्वथा अभावरूप नहीं होता। क्योंकि वस्तु में उसी सप्ता--मौजूद:-गण रूप से अवश्य रहती है । इसप्रकार मुल्य व गोप की व्यवस्था से एक ही वस्तु शत्रु, मित्र और भय आदि शांचयों रो लिए रहती है । जैसे कोई व्यक्ति किसी का उपकार करने के कारण मित्र है । वही किसी का अपकार जाने के कारण शत्रु है। वह किसी अन्य व्यक्ति का उपकार-अपकार करने से शत्रु-मंत्र दोनों है । इसी प्रकार जिससे उसने उपेक्षा र रक्खी है उसका वह न शत्रु हैं और न मित्र है । इसप्रकार उसमें शत्रुता-मित्रता आदि के गुण एक साथ पाए जाते हैमतः वस्तुतः वस्तु विधि-निषेधरुप दो दो सापेक्ष धर्मों का अवलम्बन लेकर ही अर्थ किया करने में कार्यकारी होती है। १-प्रस्तुत गुण प्रस्तुत दोनों (सुदसवी व उसकी कार्तिकन्या) में समान रूप से वर्टमाम है। २-ध्यान से प्रतीत होनेवाला अपे यह है कि जिस कीर्तिकन्या को मोक्षरूप पर की प्राप्ति-हेतु माझलिक विधि क आशा दांगई है। क्योंकि नीसिनिष्टो ने कहा है-'कीर्तिमान पृश्यते लोके परह च मानवः, संस्कृत टीका प्र. ८. से समुदत । भात-कीतिशाली मानब इसलोक व परलोक में पूजा आता है। - इसका ध्यान रुप भर्थ यह है कि पृधावस्था-यश गमन करने की शक्ति से हीन पुरुष यदि कमला ( लक्ष्मी) को आसन (स्वीकार) करता है, तो उसकी कीर्ति नहीं होती। --इसका पनि रूप अर्थ-ओ परस्त्रीलम्पटहुआ युक्ती श्री का भेषधारण करके परी का सेवन करता है एवं अनेक नियों की ओर नीति-विरुद्ध खोर्टी नजर फेंकता है, जो शारीरिक अङ्गों से हीन हुमा दवसुर-घाती है, तषा जो प्र-कलह-कुपित अर्थात् प्रष्टनयों-ससमकों के विवाद के अवसर पर कुपित होता है। अर्थात अकाव्य यत्रियों द्वारा एकान्तवादियों का खंडन नहीं करसा एवं फलाह-जनक वचन श्रेणियों द्वारा उनका निभह नहीं करता और परस्पर अपेक्षा रखने वाले नय स्वीकार नहीं करता एवं जो सप्तमधातु-वीर्य-का नाश करता है, उसकी कीर्ति नही होती।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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