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________________ प्रथम आश्वास कुबेरपुरकामिनीकुचचूचुकपटलश्यामलानि ललितापतिशैलमेखलासु तमालतहबनामि, निजनाथावसथपथप्रस्थानपरिणतरतिचरणशिजानहि जीरमणितमनोहराणि सपरिषस्म शब्दितानि, कलिन्दकन्याकझोलजलश्यामायमानोर्माणि, मन्दाकिमीस्रोतसि पयांसि, निरहरदाष्टकमषीलिखितलिपिस्पर्धीनि सरस्वतीनिटिलतटेषु कुन्सालजालानि, रमनिरस्मततन्तुसम्तामापहासीनि सितसरसिजकोशेषु केसरागि, कम्बुकुलमाम्ये अ पाचमन्ये कृरुणकरपरिग्रहनिरवधीनि व्यवाददानि ।। यस्य च मुजन्मनः प्रगुणतरुणिमोन्मेषमनोहारिणी यथादेश निवेशितपरिणयप्रवणगुणमोतमणिविभुषणा ओटों सरीखी थी, जो कि उनके पतियों द्वारा पूर्व में विशेषरूप से पान किए गए और पश्चान् पीड़ित (चुम्बित ) किये गए. और तत्पश्चात् छोड़ दिए गए थे एवं जो अपने प्रियतमों के हस्तरूप कोमल पल्लवों की वायु द्वारा वृद्धिंगत किये गए थे। इसीप्रकार मानों-उसने कैलाशपर्वत की कटिनियों पर ऐसे तमालवृक्षों के बन उत्पन्न क्रिये, जो कुवेरनगर ( अलकापुरी) की नवयुवती कामिनियों के कुचकलशों के अग्रभाग-पटल सरीखे श्याम धे। इसीप्रकार उसने इस समूहों में ऐसे शब्द उत्पन्न किये, जो अपने पात कामदेव के गृह-मागे में प्रस्थान करनेवाली शते के चरण-कमलों में शब्द करनेवाले नूपुरों-घघरुओंके कामक्रीड़ा के अवसर पर किये जानेवाले शब्दों के समान मनोहर थे। इसीप्रकार मानों उसने गलाप्रवाह में ऐसे जल उत्पन्न किये, जिनकी तरङ्गे यमुना की तरङ्गों के जलों से श्यामलित कीगई थीं। इसीप्रकार उसने सरस्वती के मस्तक-तटों पर ऐसे केश-समूह उत्पन्न किए, जो हस्ती के दन्तपट्टक पर स्याही से लिखी हुई लिप को तिरस्कृत करते थे। एवं उसने श्वेत कमलों के मध्य ऐसे केसर-पराग-उत्पन्न किये, जो कि हल्दी के रस से रजित सूत्र-( तन्तु ) समूह को तिरस्कृत करनेवाले थे। इसीप्रकार मानों-- उसने शंख-कुल में प्रशस्त पाञ्चजन्य ( दक्षिणावर्त नामक विष्णु-शंख ) में ऐसे दिन उत्पन्न किये, जो कि श्रीनारायण के हस्त को स्वीकार करने में मर्यादा का उल्लङ्घन करते थे। यर्थान-पानजन्य शंख के फूकने के दिन विस्तृत ( बेमर्याद । होते हैं, क्योंकि वह शंग्व नित्य रहनेवाले विष्णु के कर कमलों में सर्वदा वर्तमान रहता है। अतः मानों-उसके शब्द भी विष्णु द्वारा करकमलों में धारण करने से काल की सीमा का उल्लङ्घन करते है। जिस पवित्र अवतारवाले सुदत्ताचार्य की ऐसी कीर्तिकन्या समस्त संसार में संचार करती हुई आज भी किसी एक स्थान पर स्थित नहीं रहती। अर्थात्-समस्त लोक में पर्यटन करती रहती है। जो सरल ( मद-रहित ) प्रकृतिरूप तारुण्य-जषानी के प्रकट होने से चिप्स को अनुरक्षित करती है। जिसके यथायोग्य शारीरिक अवयवों-हस्त-श्रादि-पर स्थापित किये हुए, व विवाह के योग्य तथा गुणोंज्ञानादिरूप तन्तु मालाओं में पोए हुए रत्नों से व्याप्त ऐसे सुवर्णमय आभूषण हैं। १. अन्तदीपक-अलंकार । २, इसका पनि से प्रतीस होने योग्य अर्थ यह है कि जो विषय कयायल्प मानसिक कषता से रहित है। अर्थात्- ऐसा होने से ही प्रस्तुत आचार्य को आदर्श कीर्ति-कन्या नवयुवती थी। ३. इसका ध्वनिरूप अर्ध यह है कि जिसके ऐसे अविवक्षित सुन्दर पदार्थरूपी रन हैं, जो कथन-शैली से निरूपण किये हुए नयों-गमादि-की अनुकूलता-~-यथार्थता--प्रकट करते हैं। स्वामी समन्तभद्राचार्य ने भी कहा है--विवक्षितो मुख्य इतथ्यतेऽन्यो गुणोऽविवक्ष्यो न निरात्मकस्ले। तथाऽरिमित्रानुभयादिनियावधेः कार्यकर है वस्तु ॥१॥-हत्त्वयंभूरतोत्र श्लोक नं ५३ । अर्थात-हे प्रभो! आपके दर्शन में, जिस धर्म को प्रधान रूप से कहने की इच्छा होती है, वह मुख्य कहलाता है तथा दूसरा जिगको कहने की इच्छा नहीं होनी बह--द्रव्य व पर्याय
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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