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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
अम्बरचश्वसनवासकृतकुतूहलमिव गगमवलोल परिमलम् असमशरोद्यावदिवसभित्र प्रसवपरागपिए किस दिन देवतासीमन्तसंतानम् अशिशिरकरण नाम उणविनोनामगमविपान्तरितषामनिमिषषोषितामसिक सटकु कालिस हर समय शुक्तिभिरिव पत्र अन्तराल से निर्गताभिः प्रसूनमशरीभिरुपचितो परितनविस्तारम् । आसनराम्रापगाभिषेकसंगमाहरूमिः *कर मपरित्र मधुकर कुकलुषित ! वहिःप्रकारम्, उज्जृम्भजपापुष्पादितमीज्ञानमौलिमिव परिणामसंगतशिवम्, अभि नयागमप्रस्तारमित्र तालबहुल व्यवहारम् धनायतनमिव मन्वाररायतनम् जीमूतवाहतचरितावतारमिव नागबलीविभव सुन्दरम् मित्र संमानणासनम्, मकरध्वजाराधनप्रसाधितगाउँमै रहर पूरातरुभिः श्यामलित विक्याल
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निलयम्
जिसके पुष्पों की सुगंधि श्राकाश मंडल पर ऊँचे उड़ रही है, इसलिये जो ऐसा प्रतीत होता था, मानों देवताओं के वस्त्रों को सुगन्धित करने के लिए ही जिसे उत्कण्ठा उत्पन्न हुई है । जिसने पुष्पों की पराग द्वारा दिशारूपी देवियों का केशपाश- समूह सुगन्धि चूर्ण से व्याप्त किया है। अतः वह ऐसा मालूम होता था, मानों- कामदेव का महोत्सव दिन ही है। जिसके उपरितन प्रदेश का विस्तार किशलयपुटों के मध्यभाग से उत्पन्न हुई ऐसी पुष्पम अरियों से व्याप्त है, जो ऐसी प्रतीत होती थीं- मानों सूर्य को नमस्कार करने में स्नेह रखनेवाली व वृक्षों की शाखाओं में अपने शरीर छिपानेवाली देवियों के ललाटपट्टों पर कुकालित किये हुए हस्तों की नखशुक्तियाँ ही हैं। जिसका बाह्य प्रदेश ऐसे भ्रमर-समूहों द्वारा श्यामलित (कृष्ण धयुक्त) किया गया था, जो ऐसे प्रतीत होते थे मानों निकटवर्ती आकाशगङ्गा में स्नान करने के फलस्वरूप नष्ट होते हुए पापकण ही हैं । जिसका अप्रदेश पकी हुई नारद्वियों से व्याप्त हुआ उसप्रकार शोभायमान होता था जिसप्रकार विकसित जपापुष्पों द्वारा जिसकी पूजा की गई है, ऐसा महेश्वर मुकुट शोभायमान होता है। जो उसप्रकार तालबद्दल व्यवहार (ताडवृक्षों की प्रचुरप्रवृत्ति युक्त) है जिसप्रकार संगीतशास्त्र का विस्तार ताक्ष बहुल व्यवहार (या के मान की विशेष प्रवृत्ति-युक्त - द्रुतविलम्बित- प्रवर्तन) होता है । जो उसप्रकार मन्दार-आयतन (पारिजात वृक्षों का स्थान ) है जिसप्रकार आकाश भन्द-आर-आयतन ( शनैश्वर प मङ्गल का स्थान ) होता हूँ। जो उसप्रकार नागवल्ली- विभव-सुंदर (ताम्बूललताओं - पनवेलों की सघनता से मनोहर ) है जिसप्रकार जीमूतवाहन (विद्याधर विशेष ) के चरित्र का अवतार ( कथासम्बन्ध ) नागवली - विभव - सुन्दर (सर्प श्रेणियों की रक्षा करने के फलस्वरूप मनोश ) है । जो उसप्रकार संनह्यमान आणासन ( जहाँपर बीजवृत्त व रालवृक्ष परस्पर में मिल रहे हैं) है जिसप्रकार कामदेव की आयुधशाला संनिझमान वाणासन (धारोप्यमाणचढ़ाई हुई डोरीवाले धनुष से युक्त ) होती है। जिसमें ऐसे सुपारी के वृक्षों द्वारा राजभवन श्यामलिस ( श्यामवर्णवाले ) किये गये हैं, जो ऐसे प्रतीत होते थे, मानों - जिनके शरीर कामदेव की पूजा-विधि के लिए रचे गये हैं ऐसे मयूरपिच्छों के छन ही हैं। अर्थात् जो सुपारी के वृद्ध मयूरपिच्छ की शोभा उत्पन्न करते थे ।
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* 'कलत्रे रिष' इति (क) प्रती 1 ↑ 'वहि: प्रकाशम्बरम् (क) प्रती + 'नारंगसंगत शिखम्' इति (क) प्रती । ई 'मन्दारसारं (क, घ, च) प्रतिषु ललिताः 1 दिप्पश्य — मन्दारवृक्षः पचे मन्दः शनैश्वरः आरः मंगल:
इस समुचिखितं । निष्कर्ष - टीकापेक्षया एवं मूलपाठापेचयार्थमेो नास्ति ।
१. उच - ताल: कालक्रियामानं यः साम्यमुनानं रुदि प्रति ( क ) से संकलित --
२. श्रीभूतवाहन नाम के विद्याधर ने दयाहता वश गरुड़ के लिए भक्षणाथ अपना शरीर अर्पण किया था, जिसके फलस्वरूप गरुड़ ने सर्प भक्षण नहीं किये, अतः उसने सर्पों की रक्षा की। संस्कृत टी. पू. ९५ से संग्रहीत --- सम्पादक