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________________ प्रथम आवास अपि च क्वचिक्नोलजाकमिर्जितसरफलपलिवेक्षिमतारुणितविविजविमानशालम् , कपिलवलीदलोडमरवम्बरचुम्बितजम्शीरासरालम्, विश्वस्यास्थानककिस्स्म्यिम् , मात्रमेहविराजितराबादनासीनसुरसुन्दरीगणगीयमानमनसिजविजयप्रबन्धम् , धिरखेचरावतरणपतत्संतामकुम्पलसंवलिसपारिजातलतान्तभ, चित्परमतपत्ररणोपाजित: सुरसैरिव महाफलप्रमापिभिः पनसपापैरुपयसपर्यन्तम्, चिनलक्ष्मीस्तनमियास्मीयकान्तिमितनीलहरिदनमुखानमपश्यत. " किंच-वृन्गलितः पुष्पैरुपहारभुपाहरत् । तारोबासिनमःशोभा विभावालभूमिषु ॥६९॥ यत्प्रान्तपश्योछासिप्रसमाउन संचयम् । दधातीन्दुमणियोतिपञ्च रागावलश्रियम् ॥७॥ यत्र च मधुकर कुटुम्बिमीनिकुरम्बाम्बरप्युम्यमानमकरन्युकदम्बरसम्पविलम्बितनिजनियम्बिनीसिम्बाधरपानपरवशविकासिनि, पुससुनोन्मुख मुखरपरिखेलस्सखीसखानेकखगप्रेशनखमुखाचलिरूपमानफलिसशिखरैः सभीपशासिभिः स्खलित प्रस्तुत उद्यान में और भी कुछ विशेपताण हैं-जहाँपर किसी स्थान पर अक्षोलों (अखरोट वृक्षो) के समूह सरीखे पिण्डखजूर-वृक्षों के फलों की स्वयं पच्यमानता ( पकना) द्वारा देविमानों के शिखरस्थान अरुणित-अव्यक्त राग युक्त-किये गए हैं। किसी स्थान पर जो लवन वृक्ष के पत्तों के उत्कट विस्तार से स्पर्श किये हुए जम्बीर वृक्षों से सघन या व्याप्त है। जहाँ, किसी स्थान पर पीपल वृक्षों के उत्थान (वृक्ष के ऊपर वृक्ष उत्पन्न करने) से कपित्थ वृक्षों के स्कन्ध पीड़ित किये गये थे। किसी प्रदेश पर जहाँ पर पारिजात वृक्ष से सुशोभित क्षीरि वृक्षों ( वर-वृक्ष-आदि) की जड़ों पर बैठी हुई देवियों के समूह द्वारा कामदेय का विजय-प्रबन्ध गाया जारहा था। किसी स्थान पर जहों पर विद्याधरों के आगमन-वश टूट रहे वृक्ष विशेषों को कोमल पल्लवों से नमेरु वृक्षों के पुष्प मिश्रित हो गए थे। किसी स्थान पर जिसकी आगे की भूमि विशाल फल देनेवाले पनस वृक्षों से व्याप्त थी और जो पनस वृक्ष उस प्रकार विशिष्ट फल (महान् फल ) देते थे जिसप्रकार चिरकालीन तपश्चर्या से उत्पन्न हुए पुण्य-विशेष विशिष्ट फल ( स्वर्गादि क सुख ) देते हैं। किसी स्थान पर जिसने अपनी कान्ति द्वारा दिमण्डल को उसप्रकार श्यामलित (नील वर्ण) किया था जिसप्रकार वनलक्ष्मी का कुच अपनी कान्ति द्वारा दिमण्डल को श्यामलित करता है। डंठलों से नीचे गिरे हुए पुष्पों द्वारा मानों-सुदत्ताचार्य की पजा करता हुआ यह उधान ( पुष्पों से व्यास) क्यारियों की पृथिवेयों पर ताराओं से प्रकाशमान आकाश की शोभा ( तुलना) धारण करता है ॥६६॥ जिसका समूह या अपचय ऊपर के पल्लयों पर शोभायमान होनेवाले पुरुषों से आच्छादित है, ऐसा वह बगीचा, चन्द्र कान्त मरिणयों से शोभायमान पद्मराग भणियों के पर्वत की शोभा- उपमाधारण करता है || ऐसे जिस बगीचे में कामी पुरुष कमनीय कामिनीजन के साथ क्रीड़ा करते हैं। कैसा है यह बगीचा? जहाँ पर बिलासी पुरुष अपनी कमनीय कामिनियों के विवफल-सरीखे ऐसे मोष्ठों के पान करने में पराधीन है, जो कि भँवरियों के समूह द्वारा आस्वादन किये जारहे अत्यधिक पुष्परस के गुल्म सरीखे है। जहाँपर यह में तत्पर वानप्रस्थ सपस्त्रियों का चित्त निकटवर्ती ऐसे वृक्षों द्वारा ध्यान से विचलित किया गया था, जिनके फलशाली शाखाओं के अग्रभाग, ऐसे पक्षियों के चलाए जारहे नखों और चोचों द्वारा चोटे जारहे थे, जो कि रतिक्रीड़ा संबंधी सुख में उत्कण्ठित, मञ्जुल शब्द करनेवाले, चारों ओर से क्रीड़ा करते १. उत्प्रेक्षा, क्रिष्टोपमा-आदि संफरालंकार । ५. उत्प्रेक्षालंकार व उपमालंकार। । उपमालंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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