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________________ - - - - - - - - . .-AT द्वितीय भावास संचमकिप्रकासंकयुर्णद्वारदेशाः प्रशान्तसमस्तकस्यव्यायः प्रथिततीर्थोपासनाविर्भवदाश्चर्यश्वर्याः सविभ्रममाम्तमहिषीमचारभस्तिभवनभुमयः परपद्वाराधनप्रकटमहामन्त्रप्रभावाः ज्याप्त थे और जिसके प्रसन्न होनेपर जो मित्रभूव राजालोग, प्रष्ट हरि-विहार-श्राकुलित-निकेतनवीधीषाले हुए । अर्थात् -जिन मित्रराजाओं की महल-वीथियाँ ( पङ्क्तियाँ या मार्ग), हर्षित हुए घोड़ों से और विशिष्ट मोतियों की मालाओं से सुशोभित होरही थीं। जिसके कुपित होजाने पर जो शत्रुभूत राजालोग, संचरतखजिप्रकाण्ड-संकट-दुर्ग-द्वारदेशवाले हुए। अर्थात्-जिन शत्रु राजाओं के कोट के द्वारदेश, प्रवेश करते हुए गेडों के समूहों से ज्याप्त और [ऊजड़ होने के फलस्वरूप] मनुष्यों द्वारा प्रवेश करने के लिए अशक्य थे और जिसके प्रसन्न होनेपर, जो मित्रभूत राजालोग, संचरत्-खङ्गिप्रकाण्ड --संकट-दुर्ग-द्वारदेशबाले हुर। अर्थात्-जिनके कोट के दरवाजों का प्रवेश, संचार करते हुए श्रेष्ठ वीर पुरुषों के कारण संचार करने के लिए अशक्य था। जिसके कुपित होनेपर शत्रुभूत राजालोग, प्रशान्त-समस्तकृत्यभ्याप्ति-शाली हुए । अर्थात्-शान्त होचुकी हैं समस्त राजकायों की प्रवृत्तियाँ जिनकी ऐसे हुए और जिसके प्रसन्न होनेपर जो मित्रभूत राजालोग प्रशान्त समस्त-कृत्य-व्याप्तिशाली हुए । अर्थात्-मैत्रीभाष के फलस्वरूप शान्त होचुकी हैं समस्त कृत्य च्याप्ति ( भेद नीति-संबंधी ब्याप्तियाँ) जिनकी ऐसे थे। जिसके कुपित होनेपर जो शत्रुभूत राजा, प्रथित-तीर्थ- उपासन-भाषिर्भवत्आचर्य -- ऐश्वर्यशाली हुए। अर्थात्-प्रसिद्ध तीर्थस्थानों ( काशी प अयोध्या-आदि ) में निवास करने से (राब छोड़कर बपश्चर्या करने के कारण ) जिन- शत्रु पजाओं को आश्चर्यजनक ऐश्वर्य (अणिमा व महिमाप्रादि ऋद्धियाँ ) प्रकट हुए थे और जिसके प्रसन्न होनेपर मित्रभूत राजालोग, प्रथित-सीर्थोपासनभाविर्भवद्-आश्चर्य-ऐश्वर्यशाली हुए। अर्थात्-विख्यात तीर्थों (मन्त्री, पुरोहित व सेनापत्ति-आदि अठारह अल्वर की प्रकृतियों) की सेवा से जिन्ई आश्चर्यजनक ऐश्वर्य (नापत्य-नृपतिपन) प्रकट हुआ था। खिसके कुपित होनेपर शत्रुभूत राजाओं के महलों की भूमियाँ, स-वि-श्रम-भ्रान्त-महिषी-प्रचार-भरित-धी। अर्थात-काक-आदि पक्षियों के ऊपर गिरने के कारण भागी हुई भैंसों के प्रचार ( षड्-भक्षण-खानेपीने के योग्य घास-मादि के भक्षण ) से ज्याप्त थी और जिसके प्रसन्न होनेपर मित्रभूत राजाओं के महलों की पुषिवियाँ, सविभ्रम भ्रान्त-महिषी-प्रचार-भरित थी । अर्थात्-भ्रुकुटिक्षेप-( भोहों का विलास पूर्वक संचालन) सहितः पर्यटन करती हुई पट्टपनियों के प्रचार ( गमनागमन) से व्याप्त थी। जिसके कुपित होने पर शत्रभूत राजा लोग, परपद-आराधन-प्रकट-महामन्त्र-प्रभावशाली हुए। अर्थात-जिनको मोक्ष की धाराधना से महामन्त्र ( पंप नमस्कार मंत्र या ॐ नमः शिवाय-आदि मंत्रों ) का माहास्य प्रकट हुमा चा अर्यात-जिनपर यशो महाराज ने कोप प्रकट किया, वे शत्रुभूत राजा लोग राज्य को छोड़कर वन में जाकर दीक्षित होकर तपश्चर्या करने में तत्पर हुए, जिसके फलस्वरूप उनमें मोक्षमार्ग की आराधना में हेतुभूत महामन्त्र का प्रभाष (अणिमा-आदि ऋद्धि) प्रकट हुभा एवं जिसके प्रसन्न होने पर मित्रमत्त राजाकोग, पर-पवारापन-प्रकट-महामन्त्र-प्रभावशाली हुए । अर्थान-जिनके पचानमन्त्र' '.... प्राण्ड' इति का ।। १. तथा चोर्ट राशामष्टादशासीति यथा-सेनापतिर्गणको रामश्रेष्ठी दम्दाधियो मन्त्री महत्तरो बलवत्तरवरवारो वर्गाचतुरामले पुरोहितोमात्यो महामात्यश्चेयि । यशस्तिलक की संस्कृत टीका से समुदत पू. २१६-सम्पादकं । १. तथा यो सहायः साधनोपायो देशकोशयलाबलम् । यिपत्तेश्च प्रतीकारः पञ्चाङ्गों मन्त्र इस्यते ॥१॥' अथवा प्रकारान्तरेण पध्याहों मन्त्रः कर्मणामारम्मोपायः पुरुषव्यसंपत देशकालप्रविभागो विगिपात: प्रतीकारः कार्यश्चेति । सं. टी.१० २१७ से संकलित
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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