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________________ यशस्विलकनाम्यूकाव्ये समसिकमावशेषकदनादुरुविनोददिनीसाजामेषजराणनिवदाः समुपानीतलधनावधिविविधरनखचितवघकाबनसिचयनिस्याः प्रदर्शित निजाम्बयपरम्परायातापहसितमुरसुन्दरीविभ्रमाम्भोल्संदी: सिषेविरे धरणिपतयः ।। मौणीयधैर्यविजयार्जनसंकयां यं वर्गन्ति गुणिमो सुगरवराशिम् । भौदार्यनिजितसुरामकामधेनुं च स्तुवन्ति अगतां पतयो माप ॥ ४४ ॥ येन निःशेषविष्टपनिविष्टविष्टकण्टकोत्पाटमार्पित करकपागंन निजभुजविजपार्जनजनितजगत्कल्याणपरम्परण च नितान्तखातपर्यस्तपुरपर्यन्तधरगया समइमातङ्गसंगतगेहगोचराः प्रहरिविहाराकुलितनिकेतनवीधयः । राजाओं ने ) ऐसे हाधियों के समूह, यशोई गाराज के तिटक में उपधित वि थे, जो कि अकुश की मर्यादा से संचालित किये जाते थे और जिन्होंने मद ( गएहस्थल-आदि स्थानों से बहनेवाला मदजल ) रूप मद्य की सुगान्ध के पास्वाद-यश इषित हुए अथवा मत्त हुए भँवर-समूहों के महार शब्दों से बाजों के विस्तार द्वगुणत किये थे। इसीप्रकार जिन्होंने ऐसे कुलीन घोड़ों के समह, भैंट में उपास्थत किये थे, जो कोड़ों का मर्यादा से संचालित किये जाते थे और संग्राम ही जिनकी गैव कीड़ा थी एवं जो अच्छी तरह शिक्षित किये गए थे। एव जिन्होंने पूर्व पुरुषों से सोचत की हुई घनराशि और नाना प्रकार के रनर्जाडत कवच (बस्तर) और सुवर्णमयी बसों के समूह भेंट किये थे और जिन्होंने अपनी कुल-श्रेणी में उत्पन्न हुई और अनीखे लावण्य-चश देवियों के विलास को तिरस्कृत करनेवाली उत्तम कन्याओं की श्रेणी मैंट की थी। कैसे हैं यशोर्घ राजा ? जिसने प्रताप (दुःसह तेज) द्वारा समस्त सुरासुर लोकों (कल्पवासी, भवनवासी, व्यन्तर व ज्योतिषी देवों) के स्वामी कम्पित किये थे। जिसकी समस्त राजामों की सेवा-समय { उत्सव संबंधी लग्न-समय ) की शोमा, निरन्तर अत्यन्त उत्कृष्ट प्रदाग्वजय सम्बन्धी नगाड़ों के शब्दों द्वारा सूचित की जाती थी। गुणवान् तीनलोक के स्वामी (इन्द्रादि), इस समय भी स्याग व विक्रम की ख्याति, धैर्य और ।। दिम्बिजय संबंधी कथानकों में जिस यशोर्घ महाराज का, जो कि गुणरूपरसों की राशि है और जिन्होंने अपनी उदारता द्वारा कल्पवृक्ष और कामधेनु को सिरस्कृत किया है, वर्णन व स्तवन करते हैं | समस्त पृथिवीमण्डल पर वर्तमान शत्रुभूत राजारूपी कण्टकों का उन्मूलन करने के लिए इस्त पर खडधारण करनेवाने और अपना मुजाओं द्वारा सम्पादन की हुई विजयलक्ष्मी से समस्त प्रथिवीमरवल की कल्याणपरम्परा उत्पन्न करनेवाले जस 'यशोर्ष' महाराज के सापत व प्रसन्न होनेपर उसके द्वारा ऐसे राजा लोग सरशता (शब्द-समानता ) में प्राप्त किये गए। कैसे हैं वे शत्रुभूव व मित्ररूप राजा लोग? जिस यो महाराज के कापत होनेपर जो नितान्त-खात-पर्यस्त-पुर-पर्यन्तधरणिशासी हुए । अर्थात्-जिन शत्रुभूत राजाओं के नारों की वासदेशव: मूमियाँ विशेष रूप से विदीर्ण व भग्न ( मष्ट ) कर दीगई थीं और जिसके प्रसन्न होनेपर मित्रराजा, नितान्त-खाव-पर्यस्त-पुर-पर्यन्तधरणिवाले हुए। अथोत्-जिसके प्रसन्न होने पर, मित्राजाओं के नारों की समीपवर्ती पूधिषियाँ, प्रचुर स्वाईयों से वेष्टित हुई। जिसके क्रोधं प्रकट करनेपर जो शत्रुभूत राजा, समद-मातङ्ग-संगत हुए। अर्थात्-बहकारी पाण्डालों से संयुक्त हुए और जिसकी असमता होनेपर जो मित्रभूत राजालोग, समद-भावा--संगव-गृहगोचर हुए । अर्थात -जिनकी गृहसंचरभूमियाँ मदोन्मत्त हाथियों से व्याप्त हुई। जिसके रुष्ट होजाने पर जो. शनुभूत राजा, प्रहप-हरि-विहारबालित-निकेतनवीथि-शाली हुए। अर्थात्-जिन शत्रु राजाओं के गृहमार्ग, इर्षित हुए बन्दरों के पर्यटन से १. मतिभय र उपमालंकार । २. उपमालंकार। * 'मितवीथयः' इति ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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