________________
.
.
.
.
.
.
.
द्वितीय भाषासः
११५ मेमानमर्यग्रौण्डीमयोपैः कुबेरायः । प्रस्थापित विश्पालकाभूषणनिमः ॥ ६ ॥ . ममवत्कोऽपि नाभाग यस्य लक्ष्मी भभुजः । नाभाग इति तेनाली पाये जगतो REM. निष्पकमहीभागो निर्विपक्षमहोदयः । नित्यायाधमनः माप पः परं माहबोत्सवम् ॥ १९ ॥ भूपतेर्यस्प माकन्दमयंगमाः । बभूर्भुवनेशाना: कर्मराम कीपा .. गुणारवामपेर्यस्य महास्वम्बनितने । सा अवकनारम्ब सभाकुम्मायने यया ॥४१॥ या सर्वलोकानां यो क्ष शितिरक्षण । यः स्वयंभूर्जगवादे श्रिया पुस्मोपमः ॥ ४२ ॥ प्रागनिमन्दरहिमाचलसेतुबन्धमयावमस्पकमिदं भुवन विलोक्म ।। स्वीयं पायः पूवरे यमनस्किातीवमलादुपरि पोषमिवावरतार ॥ ४३
प्रतापकम्पिलासुरासुरजोधपरिसम्मनगरसोदितोषिषविजयामास्वनविसस्तकविक्पालसेवासमपराधमुपायनीकृतायावमवमपिरम्मोहास्वादोन्मबमधुकरकुलकोलाहललमहकरिण्डिमाबम्बरकरिघटा।
जिस यशोधराजा ने इस संसार में अद्भुत त्यांग, विक्रम और यशरूपी कमजों द्वारा दिपाल नरेन्द्रों अथवा इन्द्रादिकों के कर्णाभूषणों की शोभा निराकृत (तिरस्कृत ) की थी' ॥३७ ।। जिस राजा की लक्ष्मियों ( धनों) में कोई भी प्रभाग (धनाश ग्रहण न करने वाला) नहीं हुआ । अर्था-सभी लोग इसके धन से लाभ उगते थे; क्योंकि यह विशेष उदार था। अतः जगत के प्राणियों द्वारा माना हुआ यह "नामाग' ( विमोष पुण्यशाली ) यह दूसरा नाम प्राप्त करके लोक में विष्यात मा १३८॥ जो यशोधराजा केवल आहष-उत्सयों (ईश्वरपजा-महोत्सवों) से विभूषित था, परन्तु बह निश्चय से कवापि बाहय उत्सव (युद्ध संबंधी उत्सव ) को प्राप्त नहीं हुआ ; क्योंकि यह, क्षुद्रशत्रु-रहित देशवाला, शनु-रहित उदयशाली और उपद्रवों से शून्य प्रजावाला मा ॥३६जिस यशोधराजा की आम्रवृक्ष की मारियों ( बालरियों) सरीखी कीनियाँ, इन्द्र, धरणेन्द्र
पारुषी-मादि के कानों के आभूषण-निमित्त हुई ॥४०॥ गुणरूपी रत्नों के समुद्र जिस कोर्षमहाराज का उज्वलीकरण-व्यापारशाली यश मझाएडमन्दिर में सदा अमृत से भरे हुए पट के समान भाचरण करता है ॥४शा जो यशोर्घमहाराज सन्मार्ग-प्रदर्शक होने के फलस्वरूप समस्त प्रचाजनों के नेत्र अथवा प्रक्षुष्मान कुलकर थे। जो पृथ्वीपालन में विपक्षण अथवा प्रजापति थे। इसीप्रकार जो प्रजाति में श्रीब्रह्मा या श्री ऋषभदेव थे एवं लक्ष्मी से अलत होने के फलस्वस्थ माप्रपण या श्रीकृष्ण थे ।।१२।। जिस यशोधमहाराज ने अपने शुभ्र यश को विशाल (महान ) और दबाज, अस्ताचल, हिमाचल (हिमालय ) और सेतुबन्ध (दक्षिण पर्षत ) की सीमावाले मनुष्य
क को भसि अस्प (विशेष छोटस) जानकर, उसे अपने शुभ्र यश को) पन्द्र के बहाने से भामाश में और शेषनाग के बहाने से अधोलोक में विभक्त कर दिया था। अाम्-जन उसका विस्तृत शुन मारक सीमावाले कोटे से मनुष्य लोफ में नहीं समाया तो उसने उसे चन्द्र व शोषनाग के बहाने से समसः भाकाश. में म अधोलोक में पहुँचा दिया । अर्थात् उसकी कद्र ब शेषनाग-सी उज्वल पसोराशिबीन लोक में व्याप्त थी ॥४३॥
. ऐसे समस्व राजा लोग, ऐसे जिस 'यशो' राजा की सेवा करते थे। जिन्होंने (जिन
१. उपमालद्वार। १. श्लेषोपमालार। * भाइवस्तु पुमान्यागे सारेऽप्याहवस्तथा इति विश्वः । अर्थात्माइप चन्द यशप युवनि पो पर्यों में प्रयुक्त होता है। ३. तु-अलाहार । ४. उपमालहार । ५. रूपक व उपमालंकार । ६. सह-अलंकार । ५.उफमासकार । भनकरतोदितविजयामास्वमसेषोत्साहितसकलाहिमालपताकिमीराखम्' इति का ।