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यशस्तिपकाये
मनो हि केवलमपि स्वभावतो विषपाटवीमवगाहते, कि पुनर्म धानङ्गशृङ्गारप्रदेशम्, कथापि खलु कामिनीनां घेतो विभ्रमयति, किं पुनर्न मयनपथमुपगतस्तास संभोग संभवः धिः करतु नियमनियमपि स्वच्छ विजृम्भन्ते, किं पुनर्न प्राप्तस्वविषयवृत्तीनि; बोधाधिपतिराकाशेऽपि संकल्प राज्यमारचयति किं पुनर्न पर्यवसितबहिः प्रकृतिः; क्योऽपि न पमस्येव मनसि व्यापारस्य किचित्परिहर्तभ्यमस्ति प्रत्युतावानेष्विन्धनेषु वह्निरिव नितान् छनि षु मकरध्वजः तच मनो महामुनीमामपि दुर्लभं पत्र कुष्ठिो युणकोट इव प्रभवितुं न सोति विषयवर्गः, भूयते हि किला लक्ष्यजन्मनो दक्षसुतानां जयके सिविलोकन तपः प्रत्यक्षस्या, पितामहृदय तिलोत्तमा संगीतकार, कैवर्तीसंगमात् पाराशरस्य, स्थनेमे टोनर्तनदर्शनात् ।
अपि च क्षीणस्तपोभिः क्षपितः प्रवासध्यिापितः खाधु समाधिषोः ।
तथापि चिनं ज्वति स्मराभिः कान्ताजनापाङ्गविछोकनेन ॥ ७२ ॥
उसे तो अवश्य ही कामी बनाकर रहेगा। मानवों की चित्तवृति जय स्वभाव से पचेन्द्रियों की विषयरूप अटवी में प्रविष्ट होती है तब कामयर्द्धक ष शृङ्गारयुक्त स्थान को प्राप्त करनेवाले की चित्तवृत्ति का तो कहना ही क्या है । जब स्त्रियों की कथामात्र भी चित्त को चलायमान करती है, तब रतं. बेलास सम्बन्धी उनकी कामक्रीड़ाओं की श्रेणी स्वयं प्रत्यक्ष देखी हुई क्या चिप्स को चलायमान नहीं करेगी ? अवश्य करेगी | चक्षुरादिक इन्द्रियाँ व्रतरूप बन्धनों से बँधी हुई होने पर भी अपने विषयों की ओर स्वच्छन्दतापूर्वक बढ़ती चली जाती हैं तब अपने-अपने विषयों को प्राप्त कर लेने पर क्या उनकी ओर तीव्रवेग से नहीं बढ़ेंगी ? अवश्य बढ़ेगी। जब यह आत्मा शून्य स्थान में भी संकल्प राज्य स्थापित कर देता है सब फिट प्रकृति ( श्री अथवा राज्यपक्ष में मंत्री ) को प्राप्त करके क्या यह संकल्प राज्य नहीं वनायगा ? अपितु अवश्य बनायगा । कामदेव के व्यापार द्वारा बाल, कुमार, तरुण और वृद्ध अवस्था में वर्तमान कोई भी मानव एसप्रकार नहीं छूट सकता जिसप्रकार यमराज द्वारा किसी भी उम्र का प्रारणी नहीं बच सकता । भावार्थ - जिसप्रकार यमराज, वाल व कुमार आदि किसी भी अवस्थाषाले मानव को घात करने से नहीं चूकता, उसी प्रकार कामदेव भी बाल व कुमार आदि किसी भी अवस्थावाले मानव को कामानि से संतप्त किये बिना नहीं छोड़ता । विशेषता तो यह है वृद्धों में कामदेव उसप्रकार अधिक प्रज्वलित होता है जिसप्रकार सूखे ईंधन में अभि अत्यधिक प्रज्वलित होती है। वह विशुद्ध ( राग, द्वेष व मोहरहित ) मन, जिसे पंचेन्द्रियों के विषय समूह ( स्पर्श व रसादे ) उसप्रकार पराजित करने में समर्थ नहीं हैं जिसप्रकार घुण-कीट बत्र को भक्षण करने में समर्थ नहीं होता, महामुनियों को भी दुर्लभ है । उदाहरणार्थ - निश्चय से सुना जाता है कि दक्षप्रजापति की कमनोय कन्याओं की जलकोड़ा देखने से शङ्करजी की पर्या दूषित हुई एवं तिलोत्तमा नाम की स्वर्ग की वेश्या का संगीत ( गीत, नृत्य व वदत्र ) श्रवण के फलस्वरूप ब्रह्माजी की तपश्चर्या नष्ट हुई सुनी जाती है और धीवर कन्या के साथ रसिबिलास करने से पाराशर ( वेदव्यास के पिता ) की तपश्चर्या भङ्ग हुई, पुराणों में सुनी जाती है । एवं नटी का नृत्य देखने से रथनेमि नाम के दिगम्बराचार्य की तपश्चर्या नष्ट हुई सुनी जाती है ।
विशेषता यह है - यह बड़े आश्चर्य की बात है कि जो कामरूप अनि उपवास वगैरह तपश्चर्या से श्री (दुर्बल) हुई और तीर्थस्थानों पर बिहार करने से नष्ट हुई एवं धर्मध्यान रूप जलपुर द्वारा अच्छी तरह से बुझा दी गई है वह स्त्रीजनों के कटाक्ष-दर्शन से प्रज्वलित हो उठती है । अर्थात्- [- मृत होकरके भी जीवित हो जाती है ॥७२॥
१. रूपक व अतिशयालंकार ।