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________________ प्रथम श्राश्वास - धम्पकचितविकचकचनारविरचितावतंसेन माधवीप्रसूनगर्भगुम्फितधुन्नागमालाविलासिना रक्तोत्पलनालान्तरालमृणालबाकुलसकोटन सौगन्धिकानुबनकालकेयूरपर्यायिणा सिन्दुबास्सरसुन्दरकालीप्रवालमेखम शिरीषवशवाणमृतमहालकारखाना मधुकानुविद्धवन्धकतनूपुरपणेन अन्यास व तासु तास कामदेवकिलकिजिलोचितासु कोडात बद्धानन्देन सुन्दरीजनन पर स्मन्ते कामिनः ॥ सदेवमनेकलोकोस्पादितग्रस्ययायाः पुरदेध्याः सिद्धायिकायाः सर्वसस्वाभयपदावासरसं मस्सौमनसं नामोद्यानमवलोक्य, . प्रास्तम्यनिसम्धिनी रसिकथाप्रारम्भचन्द्रोदयाः कामं xकामरसावतारविषयत्र्यापारपुष्पाकः । प्राय: प्रातसमाधिशुन्द्र मनसोऽप्येते प्रदेशाः क्षणात्स्वान्तवान्तकृतो भवन्ति तदिह स्थातुं न युक्त यो इति व विता, मनागन्तः स्तिमितमानसः प्रसरहनेकषितकरसः सकागदापातघटनाधस्मरः स्मरः खलु रमलानवासिनमप्पानयल्यात्मनो निदेशभूमिम्, कि पुनर्न गोधरपसितम्, जिसने अपना कर्णपूर चम्पा पुष्पों से व्याप्त हुए विकसित कचनार पुरुषों से रचा था। जो माधवीलता के पुष्पों के मध्य में गुंथे हुए पुन्नाग पुष्पों की मालाओं से विभूषित था। जिसकी भुजाएँ लाल कमल की नाल के मध्य में वर्तमान पश्मिनी-कन्द के कण से अलङ्कत थीं। जो लाल कमलों के मध्य में गुंथे हुए श्वेत कमलों के केयूरों (भुजवन्ध आभूषणों ) से अलत था। जिसकी कदली लवाओं के कोमल पत्तों की कटिमेखला ( करधोनी ) सिन्दुवार ( वृक्ष विशेष) के पुष्पों के हार से मनोहर प्रतीत होती थी। जो शिरीष पुष्पों के बीच में गुंथे हुए मिण्टी पुष्पों से रचे हुए जवा-संबंधी आभूषण से रमणीक था। जिसने मधुक पुष्पों के मध्य में गुंथे हुए बन्धु-जीव पुष्पों से नूपुर आभूषण की रचना की थी एवं जो दूसरी ऐसी जगत्प्रसिद्ध क्रीड़ाओं में श्रानन्द मानता था, जो कि कामदेव के हर्ष पूर्वक गाए हुए गीतादि विलास के मिश्रण से योग्य थीं। प्रस्तुत सुदसाचार्य ने इसप्रकार अनेक लोगों को विश्वास उत्पन्न करानेवाली सिद्धायिका (महावीरशासनदेवता ) नाम की राजपुर नगर की देवी के ऐसे 'स्मरसौमनस' नामक बगीचे को, जहाँपर समस्त प्राणियों को अभयदान देनेवाला अनुराग पाया जावा है, देखकर कुछ आभ्यन्तर में निश्चल चित्तवृत्तिवाले और अनेक विचारधाराओं के अनुराग से युक्त होते हुए उन्होंने अपने मन में निम्नप्रकार विचार कियाये पूर्वोक्त धगीचे की ऐसी भूमियाँ, जो कि तीन लोक की कमनीय कामिनियों की रतिविलास सम्बन्धी कथाओं के कहने का उसप्रकार प्रारम्भ करती हैं जिसप्रकार चन्द्रोदय होनेपर रतिविलास सम्बन्धी कवा का प्रारम्भ होता है। एवं जो, यथेष्ट कामरस को उत्पन्न करनेवाली संभोगक्रीडा में उसप्रकार प्रेरित करती है जिसप्रकार वसन्त ऋतु कामोद्दीपक संभोग-कीड़ा में प्रेरित करती है, ऐसे संयमी साधु के भी चित्त में प्रायः करके मुहूर्तमात्र में राग उत्पन्न करती हैं, जिसकी चित्तवृत्ति, स्वाधीन किये हुए शुद्धोपयोग के कारण विशुद्ध होचुकी है। अत: साधु को ऐसी रागवृद्धि करनेवाली उद्यानभूमियों पर ठहरना उचित नहीं ||७|| क्योंकि यह कामदेव समस्त तीन लोक के प्राणियों पर निष्ठुर प्रहार की रचना करने के फलस्वरूप सर्वभक्षक है। इसलिए जब यह निश्चय से श्मशानभूमि पर रहनेवाले मानव को भी अपनी आदेशभूमि पर प्राम करा देता है सघ फिर कामोद्दीपक उद्यानभूमि पर रहनेवाले का तो कहना ही क्या है? अपात् १. समुश्चमालबार । २. उपमालकार । * 'रतिरसोझासामृतामोधराः । ४ 'कामशरप्रचार चतुरन्यापारपुष्पारराः । इति ह. लि. सष्टि. (क) प्रतो पास। A. बसन्तमासाः। .
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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