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________________ प्रथम भापास तावसपो बपि चेतसि तवचिता कार्म पीकविषये पामा शमन। यावा पश्यति मुखं रगडोषमाम अत्तिनियासिकामसूत्रम् ॥ ३॥ श्रोत्र मुतो पति वीक्षणमीक्ष्यमाणवि स्मृतः समागविजयामि। प्राणाम् पुनः प्रणयदाधितो रति बोके वापि वनितायन एष पर तपो पृगायते पुंसां सम वीर्यफजितः । मीणा भूपापविमान्तोत्रापाङ्ग गहते। ॥४१५ था swi देश: I ri एकः दुकर मुरम्, पूरतरमुखमामि गिरि हिलानीच सायन्ते शरीरिणां स्क्यानि सुखेनैवापस्तात् पातपिठमारोक्षयितु म पुमर्दुःखेनापि, अस्ति योसि बहुविवानि ति विदुषी प्रवाया, जब तक यह मानव कमनीय कामिनियों का ऐसा मुख, जिसने शृङ्गार चेष्टाओं द्वारा कामसूत्र उदाहरण मुक्त बनाया है, नहीं देखता तभी तक यह शरीर द्वारा विशेषरूप से तपश्चर्या करता है और सभी तक इसके वित्त में आत्मभ्यान के भाष विशेषरूप से प्रकट होते हैं एवं तभी तक इसकी इन्द्रियों अपने अपने स्पर्श-मादि विषयों में अत्यन्त शान्त रहती है परन्तु जब यह ललित-सलनाओं के शृङ्गार-पूणे मुख का वर्णन करता है उसी समय इसकी तपश्चर्या तत्त्वचिंता व जितेन्द्रियता नष्ट होजाती है। 11७३॥ यह कामिनी-जन विशेष चौर है, क्योंकि सुनी हुई यह, सुननेवाले के कान चुरा लेती है। अथों-जिसने स्त्री का नाम मुमा है, वह फिर स्त्री सिवाय दूसरी बात नहीं सुनता और दर्शन की हुई नेत्र चुरा लेती है, क्योंकि फिर कामीपुरुष को सी-सिषाय कुछ दिखाई नहीं देता। इसीप्रकार चिन्तषन की हुई यह मम हर लेती है और आलिंगन कोई उसकी वीर्थधातु का भय करती है और स्नेहयुक्त हुई प्राण हर लेती है और वियोग को प्राप्त हुई खीजन भोजन-आदि में रुचि नष्ट कर देती है। अर्थात्-जब कामीपुरुष का स्त्री से षियोग होजाता है तब यह असके दुःख से भोजन-पान छोड़ देता है। तथापि संसार के लोग उस स्त्री की प्राप्ति के लिए किसप्रकार प्रयस्नशील देखे जाते है |क्षा कमनीय कामिनियों के भ्रुकुटिरूप धनुष पर चढ़ाए हुए नेत्रों के कटाक्ष सप पाणों के प्रहार से मानवों की तपश्चर्या युजि, धीरता और लज्जा के साथ-साथ नष्ट होजाती है 11७11 जिसप्रकार एकवार गिराये हुए महलको फिर से जैसे का तैसा बनाने में मदाम् कष्ट उठाना पड़ता है ससीप्रकार स्त्री-आदि के उपद्रों से एकवार तपश्चर्या से विचलित हुए मम को भी फिर से काबू में लाने के लिए (पुनः तपश्चर्या में संक्षत करने के लिए) महान् कष्ट का सामना करना पड़ता है। एवं विसप्रकार अस्यंत ऊँचे पर्वतशिखर सरलता से अमीन पर गिराए जा सकते हैं परन्तु अनेक कट उठाये जाने पर भी फिर से ऊपर नहीं पदाए जा सकते इसीप्रकार अत्यन्त उन्नत (पंचेन्द्रियों के विषयों से पपन्मुख ) और तपश्चर्या-यादि में लवलीन हुए मानवों के चिप्स भी सरलता से नीचे गिराए जा सकते हैंविषयों में लम्पट किये जा सकते हैं। परन्तु अनेक कष्ट उठाए जाने पर भी फिर से ऊपर नहीं पड़ाए जा सकते-पुनः वपर्या में स्थिर नहीं किये जा सकते । 'पापियों को भी पुण्य कार्यों के करने में बहुत विश्न वाधाएँ हुआ करती हैं परन्तु जब वे पाप कायों में प्रवृच होते हैं तब उनकी समस्त विघ्न बाधाएँ कहीं पर नष्ट हो जाती हैं ऐसी विद्वानों में प्रसिद्ध है। अतः तपस्वी संयमी जनों के पुण्य कार्यों ( धर्म ध्यानादि ) में विघ्न बाधाएँ उपस्थित होना स्वाभाविक ही है। १. उपमालंकार । १. दीपकालंकार ३. उपमा, सहोक्ति व रूपकासकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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