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________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये असाभास बिसतगुर्दन्तिममिव प्रत्यवस्पन्तमात्मानमतं न भवति मिवारयितुम् तमुखद हवाधीरधीषु न बायते सतलिस्य बाबाच देहाडक्शनमः संयमः, बहिस्थास्थितः पारदरस इक द्वन्द्वपरिगतः पुमान् क्षगमपि नास्ते प्रसंस्थानकासु, एमपीई बनादलीतं करियूधमिवाचापि म संमवत्ति प्रायेण शान्तिनिक्तिम् , सर्वदोषदुई पालशुण्डालमिवामीNARIशोषणामग्वियमाममायनापि संरक्षितु न तरति पुरस्कारीलोमः । किंव-सम्वद्गुरको गन्यास्तावस्वाध्यायधीर देतः । यवन्न मनसि दमिताधिविष विशति पुरुषाणाम् ॥७६ ॥ सापत्यवादविषयस्तारपरकोचिन्तनोपायः । शतरुणीवित्र मतदयो न जायेत ॥१७॥ हास्य हि पतिस्तत्रन यत्रास्ति संगमः स्त्रीभि: । बालापासवधिरिसकणे कुतोऽप्रसरः ॥८॥ जिसप्रकार मृणाल तन्तु जाते हुए मवोन्मत्त हाथी के रोकने में समर्थ नहीं होता उसीप्रकार धर्म शासों का अभ्यास व अनुशीलन (चितवन ) भी विषय सुख की ओर प्रवृत्त होने वाले संचल चिपको याँभने (तपभर्या में स्थिर करने ) में समर्थ नहीं हो सकता। जिसप्रकार केवल गारमात्र को रण रखने वाला फायर पुरुषों द्वारा धारण किया हुआ वध (पख्तर ) शत्रु द्वारा विभिन्न प नष्ट होते हुए हृदय को सुरक्षित नहीं कर सकता उसीप्रकार पंचल चिन्तवाले पुरुषों द्वारा पालन किये हुए शरीरको सन्तापकारक प्रारम्भ वाले चरित्र का अनुष्ठान भी चंचल चित्त को सुरक्षित नही रख सकता। एवं जिसप्रकार अग्नि के ऊपर स्थापित किया हा पारद द्वन्न परिगत (अनेक औषधियों से वेष्टित ) होने पर भी चरण मात्र भी नहीं ठहरता ( उड़ जाता है) उसीप्रकार दून्दू परिगत (खुबसूरत स्त्री के साय एकान्त में रहने वाला मानष भी धर्मध्यान संबंधी कर्तव्यों में क्षणमात्र भी स्थिर नहीं रह सकता। प्रकरण में जिसप्रकार वन से लाया हुआ हाथियों का समूह प्रायः करके बन्धन काल में भी पमायुक्त । शान्त ) नहीं होता उसीप्रकार प्रत्यक्ष रष्टिगोचर हुआ यह हमारा मुनि संघ भी इस चरित्र धर्म की साधना के समय में भी प्रायः करके क्षमा-युक्त ( विषय सुख से पराङ्मुख ) होकर धर्म ध्यान में स्थिर नही रह सकता । एवं जिसपर पुरवारी लोक ( महावत), समस्त दोषों से दुष्ट और शिक्षा उपदेश से यम मदोन्मत् दुष्ट हाथी का संरक्षण नहीं कर सकता उसीप्रकार पुरश्चारी लोक (मुनि संघ में श्रेष्ठ आचार्य) इस शिष्य मण्डल के इन्द्रिय समूह को भी, जो कि समस्त रागादि दोषों से दुष्ट और बारह भावनाओं की शिक्षा रूप उपदेश से शून्य है, अत्यंत सावधानी के साथ विषयों से रोकने में समर्थ नहीं हो सकता। अब विशेषता यह है-जब तक साधु पुरुषों के चित्त में स्त्रियों का दर्शनरूप विष प्रविष्ट नहीं होखा तभी तक उनका पित्त शास स्वाध्याय की अनुशीलन-बुद्धि में सत्पर रहता है और तभी तक उनके सारा भाचार्य माननीय होते हैं। अर्थान-ज्यों ही साधुओं के चित्त में स्त्रियों का दर्शन रूप विष प्रविष्ट होवा है स्यों ही उनकी प्राचार्य भक्ति और शास्त्र स्वाध्याय ये दोनों गुण फूच कर जाते हैं ॥४६॥ ___ जब कक यह मानध, नवीन युवतियों के कुटिल कटाक्षों द्वारा चुराए हुए मृदयषाला नहीं होचा उमी तक यह प्रवचन (धर्म-शास) का विषय ( पात्र ) रहता है एवं तभी तक मोक्ष प्राप्ति की साधना के उपाय वाला होता है। ॥७॥ जो मानव नियों के साथ संगम (हास्य व रतिविलास-आदि) करता है, समें गुरु की आज्ञापालन-प्रवृत्ति नहीं रह सकती। क्योंकि जिसके श्रोत्र कामिनियों के परस्पर संभाषण रूप जन पूर से बहिरे हो चुके हैं, उस (विषय-सम्पट ) पुरुष को पूज्य पुरुषों की बाबा-पालन का अवसर पिसप्रकार प्राप्त हो सकता है? अपि तु नही प्राप्त हो सकता ॥el १-उपमालंकार । २. रूपकालंकार । ३. जाति-अलंकार । ४. रूपफ वे आक्षेपालंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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