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यस्तिककपम्पूचव्ये बासुकमेरि पनि स्वमात्मकमो बागति तन मसु फर्म पुरासन है। पोह विवर्धयति कोपि विमाभइद्धिः स्वस्योल्याप स नरः प्रपरः कर्य स्यात् ॥ १४३॥ मावाशिमा रसायमा स्वस्थे ममारमनसि ते विस्मरन्सि । बकायान्मतिबिस्फुरितामि पवाजीवाम्यथा पदि मम्ति अयोधप्रिय ॥१५४ ॥ इति निर्जरायुप्रेक्षा बदामिसंधिश्वभूतबहिःसामीहस्तलावसायसविनाहितमूलपान्धः । भारमामात्मनि तनोति प्रदूगार्गी धर्मे तमादुरोपमसस्ममाप्ताः ॥ १६ ॥ मेस्त्रीदवाइमरामागमनिचाना गा निपप्रसरवर्जितमामसानाम् । विधापमाप्रइतमोहमहामहाणां धर्मः पापरफलः मुलभो नरामाम् ॥ १४ ॥ PATE सैः कसति प्रहनदि बाधाः सटेरसाम्यविभुरभ्युक्यादिमियः । ज्योतीबि दूतपति बास्मसमीहितेषु धर्मः स धर्ममिधिरस्त ससा हिताय ॥ १४ ॥
रेभामम् ! इस संसार में तुम पंचेन्द्रियों के विषयों की लालसा (इच्छा) करते हुए स्वयं को परिणाम कलुषित ( मलिन ) करते हो, क्योंकि उस विषयों की कामना-इच्छा-से निश्चय से तेरा पूर्व में पार हुमा पाप कर्म जागृत होता है। अर्थात्-विशेषरूप से उदय में आता है। क्योंकि जो कोई महानि स पार्टी अपने कल्याण के उद्देश्य से सर्प को दूध पिलाकर पुष्ट करता है, यह किसप्रकार श्रेष्ठको है। अपितु नहीं हो सकता' ||१४॥ हे भीष ! जब तेरा मन कुछ स्वस्थ (निरोगी) होजाता है मोगी हुई रोग रूप अग्नि-ज्यालाएँ शोय तेरे स्मृति-पथ ( मार्ग ) में प्राप्त नहीं होती। अर्थात् शीच भूल जाता है। हेजीप ! यदि रोग के अवसर पर उत्पन्न हुए अपने बुद्धि-चमत्कार (यदि में लिया हो जाऊँगा तो अवश्य निश्चय से विशेष धान-पुण्यादि धर्म कलैगग-इत्यादि प्रशस्त विचार-चाप ) न भोक किसप्रकार तेग अप्रिय (अकल्याण अथवा पापोपार्जन) हो सकता है? नहीं हो सकता anal इति निर्बयनुप्रेक्षा ॥१०॥
अब धर्मानुपेक्षा–स्वर्ग व मोक्षफल का इच्छुक आत्मा जब सम्यग्दर्शन-संबंधी विशुस मभिमाया। (सम्पष्टि) व पंचेन्द्रियों के विषयों की लालसा दूर करने वाला होता है। अर्थात-समस्त पापभियान ( हिंसा, झूठ, चोरी, अशील व परिषद का त्यागरूप चारित्र धारण करता है एवं जब तत्वों ( भजीष, भासष, बंध, संवर, निर्जरा प मोक्ष इन सात वस्त्रों और पुण्य व पाप सहित नौ पदाया जीव पुरस, धर्म, अधर्म, आबश व काल इन छह द्रव्यों) के सम्यग्ज्ञान रूप जल से भूख-पन्ध (पर पृष्ठ की बद) को मारोपित करनेवाला होता है। अर्थात् अब जनदर्शन संबंधी सलामी सम्यवान व सम्पाचारित्र से अलंकृत होता है, उसे ( सन्यादर्शन-शान-बारित्र को ) सर्वज्ञ भगवान का सरीखा फल देने वाला 'धर्म' कहते हैं ।।१४।। ऐसे महापुरुषों को, जिन्होंने मैत्री (भष), प्राणि इन्द्रिय-चमन ( जितेन्द्रियक्षा) और उत्तमक्षमा इन धार्मिक प्रशस्त गुणों की प्राति से शाश्वत सुख किया है। जिनकी चित्तवृत्ति पंचेन्द्रियों के विषयों (स्पर्श-आदि) में होनेवाली इन्द्रिय-प्रवृत्ति से (शून्य) एवं जिन्होंने सर्वज्ञ-प्रणीत शास्त्र-संबंधी तत्वज्ञान के माहान्य से अपना मोह (भाग रूप महान पिशाच नष्ट कर दिया है, स्वर्गसुख व मोक्ष-सुख-दायक धर्म की प्राप्ति सुलम (स) १॥१४॥ समस्त सुखों की निधि रूप यह जगप्रसिद्ध धर्म, विद्वज्जनों को मोक्षप्राप्ति में समर्च
१. बापालधार । १.स्पकरआक्षेपालार। ३.रूपका उपमालहार। ४.रुपकालाहार।