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________________ द्वितीय भाधासः से कामयाबुतमतिमिरये तिरवि पुप्पोषितो विधि मूषु प्रयकर्मयोगात् । इत्य निवीहसि जगत्वपमन्दिरेस्मिन् स्वैर प्रचारविषये तक लोक पुषः || १४० ॥ मनास्ति जीवन वकिचिवमुकमुक्त स्थान स्वया निखिलतः परिशीलनेन । वस्केवल विगलितासिकर्ममा पूर्व कुसहसधियापि म बातु धाम ॥ ११ ॥ वि लोकानुप्रेक्षा ॥१॥ मापातरम्परचमेनिस्साबसानैर्जन्मोजवेः सुमसौः स्खलितान्तरणः । बुखानुकरमर्षितमाम्यवसाय सहस्व इतजीव नषप्रयातम् ॥ १४ ॥ उसके करने का प्रसङ्ग दृष्टिगोचर होना चाहिये, क्योंकि क्या उस समय में भी उसमें ज्ञानशक्ति और प्रकाशक्ति वर्तमान नहीं है ? अपितु अषश्य है। ऐसा होने से (हार-आदि को भी ईश्वर क क मानने पर) माली वगैरह से फिर क्या प्रयोजन रहेगा? यदि कोई पुरुष (बझा-आदि), पृथिवी-आदि द्रव्यों के परमाणु-समूह को आहृत्य (संयुक्त करके ) पृथिवी, पर्वत और वृक्ष-आदि तीनलोक की परतुएँ बनाता है वो फिर गृह-आदि के निर्माण ( रचना ) में बदई और राज-श्रादि निर्माताओं से क्या प्रयोजन रहेगा ? कोई प्रयोजन नहीं रहेगा। क्योंकि तीन लोक के निर्माता (पा ) को क्या गृह-आदि का निर्माण करना कठिन है? कोई कठिन नहीं है। अतः करी त्व-बाद की मान्यवा (ईश्वर को जगत्सष्टा मानने का सिनन्त ) युक्ति-युक्त व यथार्थ ( सही ) नहीं है। ।। १३९ ।। हे आत्मन् ! जब तुम्हारी बुद्धि केवल पाप से घिरी रहती है तब तुम नरकाति व तिर्यनगति में उत्पन्न होते हुए सदा या विशेषरूप से कष्ट सहते हो पौर जब पुण्य-शाली होते हो तब सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त स्वर्ग में जन्म धारण करते हो एवं जब पाप और पुण्यरूप दोनों प्रकार की कर्म-सामग्री के सम्बन्ध से युक्त होते हो तब मनुष्यगति में जन्म धारण करते है। इसप्रकार से तीन लोकरूपी गृह में तुम उत्पन्न होते हुए निरन्तर कष्ट सहते हो। इसप्रकार यह लोक तुम्हारी इच्छानुसार प्रचार ( परिभ्रमण-प्रकार ) के हेतु है ।। १४० ॥ हे प्रास्मन् ! इस लोक में कोई भी स्थान तुम्हारे द्वारा पूर्व में बिना भोगे छोड़ा हुआ नहीं है। अर्थात्-सभी स्थान तुम्हारे द्वारा पूर्व में भोगे जाकर पश्चात् छोड़े गए हैं। ममिप्राय यह है कि इसके सभी स्थानों ( ऊर्चा, मध्य व अधोलोक ) में तुम अनेकधार देवं ष मनुष्य-आदि की पर्या धारण करके उत्पन्न होचुके हो। क्योंकि अनादि काल से प्राणियों के अनेक जन्म हो चुके हैं। अतः अनन्त पार पसरवार के परिशीलन (अभ्यास-सेवन अथषा अनुभवन ) से तुम्हारे द्वारा इस लोक के सभी स्थान पूर्व में भोगे जाचुके हैं और पश्चात् छोड़ें आचुके हैं। परन्तु हे प्रात्मन् ! नष्ट होचुके है समस्त शानाधरणकादि फर्मसमूह जिसमें ऐसा वह जगत्प्रसिद्ध केवल मोक्ष स्थान ही ऐसा पाकी है, जो कि तुम्हारे द्वारा कदापि कौतूहल-युद्धि से भी नहीं छुआ गया। अर्थात् केवल वही मोष-स्थान तेरा अभुत पूर्व-जो कभी नहीं भोगा गया है ||१४१५॥ इति लोकानुप्रेक्षा 180 बय निर्जरानुप्रेक्षा-हे नष्ट आत्मन् ! तुम्हारी चिसधि, ऐसे सांसारिक भोग( बी-मादि) संबंधी सुखलेशों से चंचल होचुकी है, जो भोगते समय तो अच्छे भालूम पड़ते है, परन्तु जिनका अन्त (मखीर ) नीरस (महान कटुक) है। इसलिए अब तुम नवीन उदय में आए हुए कमों कर ऐसा फल ( दुःख.) तपश्चर्या द्वारा सहन करो, जिसके भोगने के फलस्वरूप तुमने शारीरिक, मानसिक व भाण्यास्मिक दुख-समूह को सत्पन्न करनेवाला पाप संचयं किया था ।।१४।। १. आक्षेपालंकार । A. 'भाहत्य' * इति क, खः । *. 'एकहेलया युगपवा, इति टिप्पणी । २. रूपकालहार । ३. जाति-कालकार । ४, जाति-अलहार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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