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________________ द्वितीय आश्वासः देशोपहारकुसपैः स्वपरोक्तापैः कृस्वाध्वरेचरमिर्ष वितन्ममीयाः । चरिणो य ह मन माम्पमानास्ले बातजीवितधियो विषमापिपम्ति ॥१८॥ येऽन्यत्र मन्त्रमहिमेक्षणमुग्धयोधाः शपिणः पुनरतः शिवतां गुणन्ति । ते माविवारणरो एषदोश्वाम्य दुष्पारमम्बुधिजन परियन्ति ॥१४॥ भर्मभूतेरित परत्र च येविचाराः संदिश सामसहशः सतसं पसन्ते। पुग्धाभिधानसमसाविषयसले नूनं गवारसपानपरा मगन्तु ॥१०॥ जो धर्म, उत्तम फल (पुत्र, कलत्र, धन व आरोग्यादि ) प्रदान करता हुआ प्राणियों के मनोरथ (स्वर्गभी व मुक्तिश्री की कामना ) पूर्ण करता है और उनके समस्त दुःख ( शारीरिक, मानसिक व आगन्तुक-आदि समस्त कष्ट ) विध्वंस करता हुमा राज्यादि विभूति के देने में अपनी अनोखी शक्ति रखता है। इसीप्रकार जो धर्म मानकों के अभिलषित (चाहे हुए मनन्त झानादि रूप मोक्ष ) की प्राप्ति करने के लिए श्रुतज्ञान, भवधिज्ञान व मनःपर्ययशान-आदि को मोक्ष के प्रधान दूत बनाकर भेजता है' ॥१४॥ . इस संसार में जो कोई अज्ञानी पुरुष यज्ञ व रुद्र-पूजा का छल करके मनुष्य, स्त्री और पशुओं के जीवित शरीरों का तलधार की धार-आदि से घाव द्वारा और कुतप A ( श्राद्ध कर्म में प्रशस्त माना हुआ दिन का माठवां भाग) द्वारा, जो कि । दूसरे पुराए, येदिक पन्नों की मान्यताओं में प्रवृत्ति करते हुए धर्म के इच्छुक है, वे दुर्बुद्धि जीवित रहने के अभिप्राय से विष-पान करते है। मर्थात्-जिसप्रकार जीवित रहने के उद्देश्य से विष-पान करनेवाले का घात होता है उसीप्रकार स्वर्ग-आदि के सुखों की कामना से उक्त यहीयहिंसा-आदि रूप अधर्म करने वाले की दुर्गति निश्चित होती है ॥१४॥ जो पुरुष दूसरे मतों के मन्त्रों का माहात्म्य ( प्रभाव-दृष्टिधंध, मुष्टि-संचार व वशीकरण-मादि) देखने के फलस्वरूप अपनी बुद्धि प्रज्ञान से आच्छादित करते हुए रुद्र-मत का अनुसरण करके उसका आराधना करते हैं और उससे अपने को मुक्त हुए मानते हैं, वे नौका में पार करने की बद्धि रखते हए भी विशाल पट्टान पर चढ़कर समुद्र की अपार जलराशि को पार करने वालों के समान अमानी है। अर्थानजिसप्रकार विशाल चट्टान पर चढ़कर 'यह नौका हमें पार करेगी' यह कहनेवालों द्वारा समुद्र की अपार जलराशि पार नहीं की जासक्ती उसीप्रकार केवल रुद्र की आराधना मात्र से मुक्तिश्री की प्राप्ति नहीं होसकती ॥१४९॥ जो पुरुष धर्म का नाममात्र श्रवण करके अर्हदर्शन व दुसरे दर्शन-संबंधी तस्वों का पयार्य विचार नहीं करते और निरन्तर संदिग्ध होकर सदा धर्म करने का प्रयल करते हैं, उन मियादृष्टियों को दूष के नाममात्र की सरशता से मलिन बुद्धि काले मानों सरीखे होकर, गाय और अकौआ के दुग्धपान में तत्पर होना चाहिए। अर्थात्-गाय का दूध और अकौआ का दूध नाम और श्वेत रूपादि में समान है, परन्तु जिसप्रकार गाय के दूध को छोड़ कर अकौआ का दूध पीना हानिकारक है उसीप्रकार अहिंसा-प्रधान जैनधर्म को लोक्कर पैदिकी हिंसाप्रधान अन्य धर्म का पालन करना हानिकारक है ॥१५०il १. रूपक एसपमालहार । २. रूप में उपमालसर अथवा छान्तालकार । ३. दृष्टान्तालबार । ४. निषेधालाहार । A-तथा चो-दिवसस्थाष्टमे भागै मन्दीभवति भास्करे ।तकाल: कतपो यत्र पिनभ्यो दतमक्षयं ॥21॥ कुशे काले तिलेऽनंगे कम्बले सलिले स्थिनि । वाहिने स्वरुपात्रेग्नौ फुलपाख्या प्रकीर्तिता ॥२॥ महात्सप्तमावर्षमवस्तारुपमास्तमा । स कालः कुतपो नाम प्रशस्तः श्रावकर्मणि ॥३॥ सटिक, ग, प से संकलित-सम्पादक
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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