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________________ २०८ यशस्विनकचम्यूकाव्ये स्मरभरकसहकेमिस्निातकविदलिततिलकमण्डने नवनातलिखितगणस्थलमायनिपीडिताधरम् । निघोडमरनयनमालामुखभुषसि समन्मनाक्षरं सुरतविलासहस तब कथयति निखिलनिवास जागरम् ॥१०॥ विविधपहर मध्यम कोकपाल कसका प्रयोगयतु सर्वजगत्प्रकोषम् । किया पानि भवति नाय भवाइसेषु ॥१॥ मध्यष राम्पसमसारपिरागठस्ते नीरोगसावहिसवाप्रवणो भिषश्च । पौरोगबोमिमवापरः समास्ते बारे बोत्सवमविरच पुरोहितोप ॥१२॥ प्राभातिकानकरवानप्रदोषारी रसन्ति गृहवापिषु राजहंसाः । उति देव भव संपति शमीसंपादित विमानमिति मुवाणाः ॥१३॥ संभोग-क्रीड़ा की कीड़ा करने में राजईस हे राजन् ! प्रातःकाल के अवसर पर दिखाई देनेवाला आपकी प्रिया का ऐसा मुख समस्त पूर्व, मध्य व अपर रात्रियों में कामोद्रेकवश होनेवाले आपके आगरण को प्रकटरूप से कह रहा है, जिसका कुलम-विलक और कजल-आदि मण्डन कामदेव की अधिकता से की हुई कलहकीड़ा से विखरे हुए केशपाशों द्वारा लुप्त (मिटाया हुआ) किया गया है। जिसन गाल-स्थल नवों द्वारा रचे गए नवीन लेखों (लिपि-विशेषों) से व्याप्त है। जिसके ओष्ठ निर्दयतापूर्वक चुम्बन किये गए हैं। जिसके नेत्र रात्रिजागरण-वश आनेवाली निद्रा से उत्कट है एवं जिसमें गद्द शब्दवाले अक्षर वर्तमान हैं। ___ भावार्थ स्तुतिपाठक प्रस्तुत यशोधर महाराज से कह रहे हैं कि हे राजन् ! आपकी प्रियतमा का मनोहर मुख इस प्रभातवेला में कुङ्कम-तिलक और कजलादि मण्डन की शून्यता तथा ओष्ठचुम्बन आदि रतिविलास-चिह्नों से व्याप्त हुया आपके कामोद्रेक-वश होनेवाले सर्वरात्रि-संबंधी जागरण को प्रकट कर रहा है' ॥१०॥ शत्रुओं का मद चूर-चूर करनेवाले हे राजन् ! आप सरीखे महापुरुषों में, जो कि तीनलोकको प्रकाशित करनेवाले तेज के गृह है, निद्रा किसप्रकार हो सकती है? अपि तु नहीं हो सकती। प्रथिवीमण्डल के स्वामी आपको, जिनसे समस्त पुथिवीमण्डल को प्रयोष ( सावधानता) प्राप्त होता है, कौन पुरुष जगा सकता है? अपितु कोई नहीं जगा सकता ।। ११ ।। हे राजन् ! यह प्रत्यक्ष प्रवीत होनेवाला श्राप का मंत्री आया है, जो कि राज्यरूपी रथ का सारथि है। अर्थात्-जिसप्रकार सारथि रथ का मली-भाँति संचालन करता है उसीप्रकार यह मंत्री भी आप के राज्यरूप रथ का सुचारुरूपेण संचालन करता है। इसीप्रकार 'वैद्यविद्याविलास' दूसरे नाम वाला 'सज्जनद्य' भी भाया है, जो ऐसे आयुर्वेद शानों का, जो निदान व चिकित्सा-आदि उपायों द्वारा नीरोग करने में सावधान है, विद्वान है और यह महानस-मध्यज्ञ ( भोजनशाला का स्वामी ) भी तैयार बैठा है, जो कि नवीन पाकक्रिया में तत्पर है। अर्थात-ओ ६३ प्रकार के भोज्य व्यञ्जन पदार्थों की पाकक्रिया में तत्पर व कुशल है एवं हे राजन् ! यह पुरोहित भी आपके दरवाजे पर बैठा है, जिसकी बुद्धि शान्तिकर्म महोत्सव के करने में समर्थ है। ॥ १२ ॥ हे राजाधिराज ! राजमहल की वावड़ियों या सरोवरों में स्थित हुए राजहंस प्रातःकालीन भेरियों की ध्वनि-श्रवण से जागने के कारण महान् शब्द करते हुए ऐसे प्रतीत हो रहे हैं-मानों-वे यह सूचित कर रहे हैं कि "हे राजन् ! उठो, इस समय राजलक्ष्मी से उत्पन्न हुआ यह ऐश्वर्य भोगो"४ ॥१३॥ *'नवनदलिखितरेखगण्डस्पल' ।* पंचमलोकपालं! ग. | A 'जन' इति टिप्पण्यां। १. अनुमानालंकार । २, अतिशय व आक्षेपालंकार। ३. समुच्चयालंकार । ४. उत्प्रेक्षालंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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