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तृतीय आवासः
सुमेषु येषु रविरेच शुभावोक यावरूनो कति सल्किक शेषु धंसे ।
मोक्षं पुनर्दवति येस्य पुरो विश्वभ्वास्तेयांसि नाम निखनोति मिलानि तेषु ॥ १४ ॥
इति वै भाविक सूक्तपाठकठोरकण्ठकानां प्रबोधमङ्गरूपाठकानामवसरावेदनसुन्दरोळी: सूफीकोलासभांसक सरोजकाननं मन्दाकिनीनं हंस इव या चिकाई मृगमदाङ्गरागबहुलपरिमां पष्यसम्मुखांचकार । कदाचिदासनोमणिमहसि प्रत्यूषादसि ।
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विनों के नेत्र हे राजन् ! यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला सूर्य जितना अन्धकार नष्ट करता है उतना अन्धकार सोते हुए पुरुषों में स्थापितकर देता है और यह (सूर्य) उन पुरुषों में, जो निद्रा - शून्य ( निरालसी ) होते हुए इसके पूर्व में ही जागते रहते हैं, अपने तेज ( प्रकाश ) विस्तारित करता रहता है' । १४ ॥
अथानन्तर किसी अवसर पर जब उदयाचलवर्ती सूर्य का निकटवर्ती महान तेजशाली प्रातः काल हो रहा था तब सुखशयन पूँछनेवाले ( स्तुतिपाठकों ) के निम्नप्रकार सुभाषित गीतरूपी अमृतरस को कर्णाभूषण बनाते हुए ( श्रवण करते हुए ) ऐसे मैंने ( यशोधर महाराज ने ) ऐसे सभामण्डप में प्रवेश किया, जिसने ( यशोधर महाराज ने ) गुरुओं ( विद्यागुरु व माता-पिता आदि हितैषियों ) तथा ऋषभादि तीर्थङ्कर देवों की सेवावधि ( पूजा-विधान ) भलीप्रकार सम्पन्न की थी। जो प्रतापनिधि ( सैनिकशक्ति व कोशशक्ति का खजाना ) था । जो समस्त लोक के व्यवहारों (मर्यादापालन आदि सदाचारों) में उसप्रकार अग्रेसर (प्रमुख) या जिसप्रकार सूर्य समस्त लोक व्यवहारों (मार्ग-प्रदर्शन आदि प्रवृत्तियों) में अग्रेसर ( प्रमुख ) होता है । जो पुरोहितों अथवा जन्मान्तर हितैषियों द्वारा दिये गए माङ्गलिक आशीर्वाद सम्मान पूर्वक ग्रहण कर रहा था | जो कामदेव के धनुष (पुष्पों) से विभूषित वाहुयष्टि-मण्डल ( समूह ) वाली कमनीय कामिनियों से उसप्रकार वेष्टित था जिसप्रकार समुद्र-तटवर्ती पर्वत ऐसी समुद्र-तरकों से, जिनमें सर्पों की फारूप श्राभूषणोंवाली
तरों की कान्ति पाई जाती है, वेष्टित होता है। जिसने प्रातः काल संबंधी क्रियाएँ (शौच, दन्तधावन स्नान आदि शारीरिक क्रियाएँ तथा ईश्वर भक्ति स्वाध्याय व दान-पुण्य आदि आत्मिक क्रियाएँ) पूर्ण कीं थीं। जिसने सामने स्थित सुमेरु- शालिनी पसति सरीखी (पवित्र) बछड़े सहित गाय की प्रदक्षिणा की थी एवं जिसका मस्तक देश ऐसे कुछ पुष्पों से अलकृत था, जो कि प्रकट दर्शन की प्रमुखताश्राले और कल्पवृक्ष- सरीखे हैं। इसीप्रकार जो उसप्रकार धवल-अम्बर- शाली ( उज्वल पत्र धारक ) होने से शोभायमान हो रहा था जिसप्रकार शुक्लपक्ष, धवल- अम्बर-शाली (शुभ्र आकाश को धारण करनेवाला) हुआ शोभायमान होता है। जो रत्नजड़ित सुवर्णमयी ऊर्मिका ( मुद्रिका ) आभूषण से अलङ्कृत हुआ उसप्रकार शोभायमान होरहा था जिसप्रकार ऊर्मिका ( तरङ्ग-पक्ति ) रूप आभूषण से अलङ्कृर्त हुआ समुद्र शोभायमान होता है। जिसके दोनों धोत्र (कान) ऐसे चन्द्रकान्त मणियों के कुण्डलों से अनहृत थे, जो (कुण्डल) ऐसे मालूम पड़ रहे थे - मानों -- शुक्र और बृहस्पति ही मेरे लिए लक्ष्मी और सरस्वती के साथ की जानेवाली संभोगकीड़ा संबंधी रहस्य (गोप्यतत्व ) की शिक्षा देने की इच्छा से ही मेरे दोनों कानों में लगे हुए थे । अर्थात् मानों-शुक्र मुझे लक्ष्मी के साथ संभोग क्रीड़ा के रहस्य तत्व की शिक्षा देने के लिए मेरे एक कान में लगा हुआ शोभायमान हो रहा था और बृहस्पति मुझे सरस्वती के साथ रतिबिलास के रहस्य तत्व का उपदेश देने के लिए मेरे दूसरे कान में लगा हुआ शोभायमान हो रहा था। जो (मैं) केवल ऊपर कहे हुए आभूषणों से ही अलङ्कृत नहीं था किन्तु इनके सिवाय मेरा शरीर दूसरे कुलीन लोगों के योग्य वेष (कण्ठाभरण, यज्ञोपवीत कटिसूत्र आदि) से मण्डित - विभूषित था ।
उत्प्रेक्षालंकार ।
१. जाति अलङ्कार | २.
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