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यशस्तिलकचम्पूफान्ये योमामा विद्यमकामनभीवियाने पिकान्सि: भाभाति रागः प्रथमं प्रभाते पुरेभसिन्धारिसकुम्भशोभः ॥१९॥ नि विहायापि निशीथिनीशं रतिस्तवात्पन्तमिह प्रसिद्धा । इयं वहनीनं विना दिनेशमास्ते निमेपार्धमपि स्वतन्त्रा ॥१॥ भतो निसर्गानिशि पांशुषस्व अवस्थितिवं विसभियरच।। मत्वैव संसर्गमयात्पुरैव संध्या वयोः सीम्नि विधि: ससर्ज ॥१॥ पूर्व सरसकरजरेसाकृतिरभररुचिस्ततो रविस्तहनु प घुमपिण्डखण्डयुखिरम्पयाडविस्ततः । पुनरयमणरसमुकुरमोरुदपति रागनिर्भरैः कुर्मक कुभि ककुभि बम्यूकमयीमित मष्टिमंशुभिः ॥१८॥ पातमधामहेमकुम्मायतिरिन्द्रसमुचिमत्तम्पस्तिमितकान्तिरहस्स्सवासमयसुवर्णदर्पणः । सक्ष्यति रविरुधारहरिरोहणविरुधिरोस्करैः परदिग्दमितामुखानि पिजरपन्नरुणितमधिमण्डलः ॥१९॥
मेरे द्वारा श्रवण किए हुए स्तुतिपाठकों के सुभाषित गीत
हे राजन् ! प्रभातकाल के अवसर पर पूर्व में सूर्य की ऐसी लालिमा शोभायमान होरही है, जिसकी कान्ति आकाशरूपी समुद्र में विद्रुम-(मूंगा) वन की शोभा-सरीखी है और जिसकी फान्ति आकाशरूपी बन में पलास (देस ) वृक्षों के पुष्पों के सहश है एवं जिसकी शोभा ऐरावत हाथी के सिन्दूर से लाल किये गए गण्डस्थल जैसी है। ॥ १५॥ हे रात्रि! चन्द्र को छोड़कर के भी अन्धकार के साथ तेरी अत्यन्त रति इस संसार में प्रसिद्ध है परन्तु यह दिवस-लक्ष्मी तो सूर्य के बिना आधे पल पर्यन्त भी वचन्द पारिणी होकर नहीं ठहर सक्ती अतः तू पांशुला-कुलटा-है॥१६॥ अतः स्वभाव से ही रात्रि में पांगुलव-कुलटाव है और दिवसभी में शुद्धस्थितित्व-पातिबल्य पाया जाता है, इसलिए ऐसा प्रतीत होता है-मानों-ज्यभिचारिणी और पवित्रता के सम्पर्क भय से ही विधाता ने दोनों (रात्रि और दिषसमी) के मध्य पूर्व में ही संध्या की रचना की ॥ १७ ॥ यह प्रत्यक्ष प्रतीत हुआ ऐसा सूर्य उदित हो रहा है, पूर्ष में जिसकी प्राकृति तत्काल में [ पति द्वारा ] की हुई नख-रेखा-सरीखी अरुण ( रक्त) है। पश्चात् जिसका आकार स्त्रियों के मोठ-सा है। तदनन्तर जिसकी कान्ति फुकुम के अर्धपिण्ड-सी है। तत्पश्चातजो रक्तकमल-समूह-सरीखा है। पुनः जिसकी कान्ति पपरागमणि के दर्पण-सी है एवं जो विशेष सालिमा-युक किरणों द्वारा प्रत्येक दिशा में पन्धूक पुष्पमयी रचना उत्पन्न करता हुवा-जैसा शोभायमान झरहा है॥१८॥ हे राजन् ! ऐसा सूर्य उदित होरहा है, जिसकी आकृति पूर्वविक्पाल के महल पर स्थित हुए सुवर्ण-कलश सरीखी है। जिसकी कान्ति पूर्वसमुद्र के प्रषाल (मूंगा) समूह-सी निश्चल है। बो दिन के महोत्सव कालसंबंधी सुवर्ण-दर्पण-सरीखा है। जो अपनी ऐसी किरणों द्वारा, जिनका समूह अत्यन्त मनोहर हरिचन्दन दीप्ति-सरीखा मनोझ है, विशारूपी वधू के मुख ररुपीत करता हुआ सुशोमिव होरहा है और जिसने समुद्र का विस्तार अरणित (श्वेत रक्त-मन्यत वालिमा-युक) किया है ॥१६॥
*'कलशविलासपझवः कः ।
१. १ उपमालंकार । १. जाति-बलकार। 1. उत्कालहार। , अपमालंकार दुई छन्द ५. सकालंधर एवं दुवई छन्द ( प्रत्येक चरण में १८ मात्रा-युक पिंपदी नामक मात्राच्छन्य)।