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________________ २०७ सृतीय भावासः विकिरमिकिर एष व्याकुलः पावपानां विस्यति शिखराणि प्रेलितो बराब्दः । हद च युगनिसा: सनकर्मप्रवधासरलितकुचकुम्भः संवरस्यङ्गणेषु ॥४॥ गलवि सम हवायं चक्रनाम्नां वियोगः स्फुटति नलिनराभिः संध्यमा सार्धमेषा । अगणितपतिगर्मा ऋणिसभूलतान्तरत्यजति कुलवधूना वासगेहानि सार्थ : अविरलपुलकालीपांशुलास्याम्मुजानां नवनवनखरेखालेखलोसस्तनीमाम् । स्मरनरपतिवृतीविभ्रमः कामिनीनामिह विहरति यूयः प्रक्वणन्नपुराणाम् ॥७॥ भलकवलयवृत्ताः किच्चिदाकुचितामताः सरसकरजरेखाः कामिनीना कपोले। प्रविधति पलाशस्यामशास्त्राशिखायामवनतमुकुलाना मसरीणामभिस्याम् ॥६॥ द्वीपान्तरेषु नलिनीवनवतिवृत्ते भानौ क्रिया नृप न कापि यथेह भाति । एवं स्वयि प्रियतमाधरपानलोले लोके कुतः फलति कर्मवसा प्रयासः ॥९॥ ओटो गर ना कुछ कमान है । यह पनियों का समूह व्याकुलित हुआ वृक्षों के शिखर आच्छादित कर रहा है। नर-माँदा पक्षियों के जोड़ों की ध्वनि चञ्चल होरही है। यह कमनीय कामिनियों की श्रेणी, जिसके कुच ( स्तन ) कलश गृहसंबंधी व्यापार-संबंध से शिथिलित हो रहे हैं, अगों पर संचार कर रही है ॥५॥ हे राजन् ! इस प्रभात वेला में यह चकवा-बकवी का वियोग उसपनर विघटित होरहा है जिसप्रकार रात्रि का अन्धकार विघटित (नष्ट) होरहा है एवं यह कमल समूह संध्या (प्रभातकाल) के साथ विकसित हो रहा है। अर्थात्-जिसप्रकार संध्या (प्रभातकाल } विकसित (प्रकट ) होरही है उसीप्रकार कमल-समृह भी विकसित होरक्षा है और कुल वधुओं । कुलत्रियों ) का समूह, जिसने पतियों द्वारा किये जानेवाले परिहास की ओर ध्यान नहीं दिया है और जिसने झुकुटि ( भोहें ) रूपी लताओं के प्रान्त भाग क्रोध-वश कुटिलित किये हैं, अपने विलास-मन्दिर छोड़ रहा है । हे राजन् ! [इस प्रभातवेला के अवसर पर ] इस स्थान पर ऐसी कमनीय कामिनियों की श्रेणी, जो कि कामदेवरूपी राजा की दूतियों-सी शोभा-शालिनी है, जिनके मुखकमल पनी रोमाञ्च-श्रेणी से व्याप्त है, जिनके स्तन नस्यों की नवीन राजियों ( रेखाओं) के मिलेखनों से चञ्चल होरहे हैं और जिनके नपुर कानों के लिए मधुर शब्द कर रहे हैं, विहार ( संचार-पर्यटन) कर रही है। हे राजन् ! कमनीय कामिनियों के केशपाश-वलयों ( समूहों या बन्धनों) पर प्रवृत्त ( उत्सम) और आकुचित (सिकुड़े हुए) प्रान्तभागमाले तत्काल में प्रियतमों द्वारा किये हुए नखचिह जब कमनीय कामिनियों की गालस्थली पर किये जाते हैं तब वे (नखचिह्न) उसप्रकार की शोभा धारण करते हैं जिसप्रकार पलाश वृक्ष की उपरितन शाखा के ऊपरी भाग पर उत्पन्न हुई व मुकी हुई कलियोंवाली मअरियों शोभा धारण करती है ।।। हे राजन् ! इस लोक में जिसप्रकार से जब सूर्य पूर्व व पश्चिम-श्रादि विदेहक्षेत्रों में स्थित हुए कमलिनियों के वन में वर्तन-शील आचारवान् है। अर्थात्-कमलिनियों के पनों को प्रफुल्लित करने में प्रवृत्त होता है तब उसके समक्ष दूसरे क्रियावानों की श्रेष्टा शोभायमान नहीं होसकती अथवा चित्त में चमत्कार उत्पन्न नहीं कर सकती, इसोप्रकार से जब आप अपनी प्रियतमा के पोधामृत के आस्वादन करने में लम्पट हैं तब आपके समक्ष दूसरे क्रियावान् पुरुषों का उद्यम किसप्रकार सफल हो सकता है? अपि तु नहीं होसकता १. रूपक व अनुमानालंकार । २. जाति-अलंकार । ३. उपमा च सदोषि-अलंकार । ४. रूपक उपमालंकार । ५. उपमालंकार । ६. रसान्त व आक्षेपालकार।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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