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________________ यशस्तिलकचम्पूकाव्ये पुनस्तदध्यास्य श्रीसरस्वती विकासकमलाकरं राजमन्दिरमहो असमासारम्भ, त्रिभुवन भवनस्तम्भ, कदाचित्समोपसमस्त लोकोमेषेषु निशोधिनीशेपेषु । २०६ हिमरुचिरस्तमेति निशि निगदित निविनियोग संगरः । रविरपि भयन विषयमयमावति जगति निजाय कर्मणे तस्कलहं विद्वाय संविशत पुननैनु दूरमन्तरम्। प्रातः कथयतीव मिधुनेषु रसस्थाकुमण्डलम् ॥३॥ निद्राशेपनिमीलितार्चनयनं किचिद्वियम्बाक्षरं पर्यस्तालकजालकं प्रविलसद्ध मम्मु फटन् । भ्रूभङ्कालसमल्पजृम्भणवशादपत्प्रकम्पाघरं चुम्बाष्ट्रिय सखीमुखं ननु श्वेरेषा प्रभा दृश्यते ॥ ४॥ अर्थात्--जो अनोखे हैं, क्योंकि जिनचन्द्र देव की शक्ति तीन लोक के उद्धार करने में स्थित है, जब कि विष्णु ने वराह अवतार के समय दंष्ट्राओं ( खीसों) द्वारा केवल पृथिवीमण्डल को उठाया था । अर्थात्जब विष्णु ने वराह अवतार धारण किया था तब प्रलयकाल के भय से उन्होंने पृथिवीमण्डल को अपनी खीसों द्वारा उठाया था, जब कि तीर्थंकर भगवान् मोक्षमार्ग के नेतृत्व द्वारा तीनलोक के प्राणी समूह का उद्धार करते हैं - ३ (२|| अनोखे साहस का प्रारंभ करनेवाले और तीनोकरूपी महल के आधार स्तम्भ ऐसे हे मारिदत्त महाराज ! मेरा राज्याभिषेक व विवाह दीक्षाभिषेक होने के पश्चात् — अथानन्तर— मैं लक्ष्मी और सरस्वती के कीड़ा कमलों के वन सरीखे उस 'त्रिभुवनतिलक' नाम के राजमहल में स्थित हुआ। किसी अवसर पर जब समस्त प्राणियों के नेत्रोद्घाटनों को समीपवर्ती करनेवाले रात्रिशेष ( प्रातःकाल ) हो रहे थे तब मैंने ( यशोधर मद्दाराज ने ) प्रात:कालीन सूक्तियों (सुवचन सुभाषितों ) के पाठ से कठोर ( महान् शब्द करनेवाले) कण्ठशाली स्तुतिपाठकों के अवसर की सूचना देने से अत्यन्त मनोहर उक्तियों (वचनों ) वाले निम्नप्रकार के सुभाषित गीत श्रवण करते हुए ऐसा शय्यातल ( पलंग ), जिसमें कस्तूरी से व्याप्त शारीरिक लेप वश विशेष मर्दन से उत्पन्न हुई सुगन्धि वर्तमान थी, उसप्रकार छोड़ा जिसप्रकार राजहंस गङ्गानदी का वालुकामय प्रदेश, जिसपर नवीन विकास के कारण मनोहर स्थली-युक्त कमलवन वर्तमान है, छोड़ता है । हे राजन् ! शब्द करनेवाले मुर्गों का समूह प्रातःकालीन अवसर पर ऐसा प्रतीत हो रहा है-मानों – वह स्त्री-पुरुषों के युगलों को निप्रकार सूचित कर रहा है- अहो ! स्त्री-पुरुषों के युगलो ! वह प्रसिद्ध चन्द्र, जिसने रात्रि में अपनी कर्तव्य प्रतिक्षा सूचित की है, अस्त हो रहा है और यह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हुआ सूर्य भी अपने योग्य कर्तव्य करने के लिए लोक में चारों ओर से नेत्रों द्वारा दृष्टिगोचर हो रहा है। इसलिए हे स्त्रीपुरूषों के युगल ! पारस्परिक कलाह छोड़कर संभोग कथे क्योंकि फिर तो रात्रि विशेष दूरवर्ती हो जायगी ॥ ३ ॥ हे राजन् ! श्रालिङ्गन करके अपनी प्रियतमा का ऐसा मुख चुम्बन कीजिए, क्योंकि निश्चय से यह प्रत्यक्ष प्रतीत होनेवाली सूर्य-दीप्ति दृष्टिगोचर हो रही है---प्रभात हो चुका है। जिसमें अल्प निन्दा-यश निमीलित ( मुद्रित ) हैं । जिसमें अक्षरों का उच्चारण कुछ विलम्ब से हो रहा है। जिसकी केशहरियाँ यहाँ वहाँ बिखरी हुई हैं। जिसपर स्वेदजल-बिन्दुरूपी मोतियों की श्रेणी सुशोभित हो रही है । जिसमें भ्रुकुटि -क्षेप ( मोहों का संचालन ) का उग्रम मन्द है एवं थोड़ी जैभाई आने के कारण जिसमें ' विषय मुपधावति' क० । १० प्रति के आधार से पद्मरूप में परिवर्तित - सम्पादक १. उत्प्रेक्षालंकार एवं दुवई ( द्विपदी - प्रत्येक चरण में २८ मात्रा-युक्त मात्राच्छन्द ) २. व्यतिरेकालंकार । ३. उकं च वाग्भट्टेन महाकविना - 'केनचिद्यत्र धर्मेण द्वयोः संसिद्धसाम्ययोः । भवत्यैकतराधिक्यं व्यतिरेकः स उच्यते ॥१॥
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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