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तृतीय आश्वासः । श्रीमतीलाम्बुजगर्भसंमवतनुः स्वर्णाचलस्नानभूसंक्ष्मीप्राधितसंगमोऽपि तपसः स्थान परस्याभवत् । ध्यानामपविधिः समस्वविषयं ज्योतिः परं प्रास्वाभ्यस्तवामध्वोदयस्य स जगपायादपायाजिनः ॥१॥ लक्ष्मीपतिप्रभृतिभिः कृतपासेवः पायाजान्ति सजयी जिनयन्यदेवः। साम्पं विषिष्टपतिस्थितविक्रमस्य दंधारवामितलस्य हरेनं यस्य ॥२॥
जिसका शरीर लक्ष्मी के क्रोढ़ाकमल की कणिका (मध्यमाग ) में उत्पन्न हुआ है। भाषार्थ- अब भगवान् स्वर्ग से अबतरण करते हैं. तब माता के गर्भाशय में कमल बनाफर उसकी कर्णिका (मध्यभाग) में स्थित होते हुए वृद्धिंगत होते रहते हैं। पश्चात्-जन्म के अवसर पर माता को बाधा (पोदा) न देते हुए जन्म धारण करते हैं, अतः आचार्यश्री ने कहा है कि भगवान का शरीर लक्ष्मी के क्रीड़ा-कमल की कर्णिका में उत्पमा है। इसीप्रकार जिसके जन्माभिषेक की भूमि सुमेरुपर्वत है। अर्थात-जिसका जन्मकल्याणक महोत्सव सुमेरुपर्वत पर देवा द्वारा उल्लासपूर्वक सम्पन्न किया गया था। जिसका संगम साम्राज्य लक्ष्मी (राज्यविभूति) द्वारा प्रार्थना किया गया था। अभिप्राय यह है कि जिन्होंने युवावस्था में साम्राज्य-सम्मी से अलंकृत होते हुए रामवत् राज्यशासन करते हुए प्रजा का पुत्रवत् पालन किया था एवं जिनमें से कुछ तीर्थकरों ने कुमारकाल में भी राज्यलक्ष्मी को रणवत् तुच्छ समझकर तपश्चर्या धारण की श्री। जो भगवान् उत्कृष्ट पीक्षा के स्थान हुए। अर्थात्-जिन्होंने साम्राज्य लक्ष्मी को छोड़कर उस्कृष्ट दिगम्बर दीक्षा धारण कर बनस्थलियों में प्राप्त होकर महान तपश्चर्या की, जिसके फलस्वरूप जिन्होंने ऐसा सर्वोत्कृष्ट केवलज्ञान प्राप्त किया था, जो कि लोकाकाश मौर अलोकाकास को प्रत्यक्ष आनता है। अर्थात्-जिसके केवलज्ञानरूपी दर्पण में प्रलोकाकाश के साथ तीन लोक के समस्त पदार्थ अपनी त्रिकालवर्ती भनन्त पर्यायों सहित एककाल में प्रतिबिम्बित होते हैं। जिसका कर्तव्य धर्मभ्यान व शुक्लध्यान द्वारा सफलीभूत हुआ है। अर्थात्-जिन्होंने धर्मध्यान व शुक्लभ्यानरूपी भमिसे घातिया नर्म (जानाधरण, दर्शनावरण मोहनीय व अन्तराय कर्म ) रूपी इन्धन को भस्मसात् करते हुए अन्य देवताओं में न पाया जानेवाला अनोखा केवलहान प्राप्त करके अपना करव्य सफल किया था एम जिसने अपना उदय ( उत्कृष्ट-शुभजनक-अय-कर्तव्य) उस जगप्रसिद्ध स्थान ( समस्त कमों के श्यरूप लथापाले मोक्ष स्थान ) में आरोपित ( स्थापित ) किया था तथा जो अनन्तचतुष्टय (अनन्तदर्शन, अनंतवान, अनन्तसुख व अनन्तषीर्य ) और नष केपललब्धियों से विभूषित है, ऐसा वह जगप्रसिद्ध अषमदेव-श्रावि से लेकर महावीर पर्यन्त तीर्थकर परमदेष तीनलोक के प्राणियों की अपाय (चतुर्गति के दुःख-समूह) से रक्षा करे ॥१॥
वह जगप्रसिद्ध ऐसा जिनचन्द्रदेव ( गणपरदेष-आदि को चन्द्र-सरीखा आल्हादित-उल्लसितकरनेवाला वीर्थकर सर्वक परमदेव ) तीन लोक की रक्षा करे, जिसके परएकमलों की भक्ति श्रीनारायण की प्रमलतापाले रुद्र व अमा-आदि द्वारा की गई है, जो कर्मशत्रुओं पर विजयश्री प्राप्त करने के कारण विजयलक्ष्मी से विभूषित है और जिसकी तुलना श्रीनारामण (विष्णु) के साय नहीं होसकती।
१. रूपमा, अम्तिक्षम र समुच्चयालंधर एवं शार्दूलविक्रीडितमान।