SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय भाषास ११९ यस्मै सचरित्रपवित्रकोटिकौमुहोसमासावितप्रीतिप्रसरः सर्वस्वमिष स्थैर्य मन्दरः, सरित्पविर्गाम्भीर्यम, मनः सौभाग्यम, अमरगुरुसिलम्, हा खेर यम., ग. काका, अनङ्गश्रीमहस्वम्, सरस्वती सिद्धि वाधि, लक्ष्मीनिवेशकर्मणि, चिन्तामणिर्ममसि, कुलदेवी पुषि, वैवस्वसः स नवश्यायाम, एवमध्येऽपि वरुणवैभवण्प्रभृतयः सपनामीण स्त्रमागधेयानि पर्शयामासुः । पमै प्रमापालामवर्ष माजे तुः सुराः स्वांशममी मुपाय। ऐश्वर्यमिन्द्रस्तपनः प्रताप कलाः कलावांत्र बलं बलालः ॥ ४ . पस्मादभूगर लोकन्धतुर्वर्गफलोत्यः । अन्यायमुनगाभोगगारूमखमणे पात् ॥ ४ ॥ ममोभूभोगिलोकाः स्रोतोमि वनत्रये । ततान भूतो यस्मात् कीति त्रिपथगापगा ॥ ४० ॥ जिसके प्रशस्त-चारित्र'-सदाचार ( परनारी के प्रति मातृ-भगिनीभाव, उदारता, न्यायमार्ग में प्रवृत्ति, अप्रियबादी के प्रति प्रिय वचनों का व्यवहार व परदोष-श्रयण में बहिरापन आवि) की पवित्र कीर्तिरूपी चन्द्रिका से विशेष प्रसन्न हुए सुमेरु पर्वत ने जिसके लिए अपना सर्वस्वधन सरीखा स्थैर्यगुण (निश्चलता-न्यायमार्ग पर निश्चल रहना ), समुद्र ने गाम्भीर्य ( गम्भीरता), काम:य ने सौभाग्य ( सव को प्रिय प्रतीत होना), बृहस्पति ने नीतिशास्त्र का रहस्य और कल्पवृक्ष ने सेव्यस्व (आश्रय किये जाने की योग्यता) प्रदान किया था। इसीप्रकार जिसके लिए भूमिदेवता ने अपना क्षमागुण, धाकाशलक्ष्मी ने महत्ता, सरस्वती (द्वादशाङ्गाषाणो) ने वचनसिद्धि, लक्ष्मी ने निदेशकर्म में सिद्धि, चिन्तामणि ने मानसिकसिद्धि, कुलदेवी ने शारीरिक सिद्धि और यमदेवता ने समस्त लोगों की वशीकरणसिद्धि प्रदान की थी एवं दूसरे भी बरुण और कुवेर-भादि देवताओं ने जिसके लिए पर्षपरुषों द्वारा संचित धनराशि सरीखे अपने अपने प्रशस्त गुण (अगम्यत्व-जिसका कोई उलाइन न कर सके ष अक्षयनिधि-श्रादि ) प्रदान किये थे। प्रजा-संरक्षण रूप यश से विभूषित जिस यशोर्ष राजा के लिए इन प्रत्यक्षीभूत निम्नप्रकार के देवताओं ने अपना-अपना अंश ( प्रशस्तगुण ) प्रदान किया था । उदाहरणार्थ--जिसके लिए इन्द्र ने अपना ऐश्वर्य, सूर्य ने प्रताप, चन्द्रमा ने कलाएँ और वायुदेषता ने शक्ति प्रदान की थी ॥४६ ।। अन्याय रूप सर्प के फणा-मण्डल के संकोचनार्थ ( नष्ट करने के लिए। गारुत्मत-मणि (विषापहार-मणि । सरीखे जिस यशोघं नरेन्द्र से यह समस्त दृष्टिगोचर मनुष्य लोक, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों को सेषन करता हुआ उनके फल (लौकिक व पारलौकिक सुख ) प्राप्त करता था ॥ ४७ !जिसप्रकार भूस् (हिमालय पर्वत ) से प्रवाहित हुई मन्दाकिनी ( गंगा नदी तीनलोक द्वारा पूज्य अपने प्रयाहों से लोक में विस्तृत या प्रसिद्ध होती है, उसीप्रकार जिस भूभृत् ( यशोघेराजारूपी हिमालय ) से प्रवाहित हुई कीर्तिरूपी मन्दाकिनी, अवं, मध्य व अधोलोकपी प्राणियों द्वारा पूज्य अपने यशरूप प्रवाहों से तीन शोक में विस्तार को प्राप्त हुई || ४८।। १. तथा चोकम् 'न बूते परदूषणं परगुणं वक्त्यल्पमप्यन्वई संतोषं बहते परर्धिषु परं वार्तामु धत्ते शुचम् । स्वरूपाय न करोति मोजमति नयं नौचित्यमुशाययुक्तोऽप्यप्रियमप्रियं न रचयत्येतच्चरित्रं सताम् ॥ १॥ मर्य-ओ इसरे गोषोंपर दृष्टि न डालता हुआ उसके भल्प गुण को भी प्रति दिन प्रशंसा करता है। जो दूसरों की बढ़ती हुई सम्पति देखार अत्यन्त संतुष्ट होता हुआ दूसरे की दुश्म की बातें जानकर शोकाकुल हो जाता है। वो भोवे से भी ( हिंसा, 3, चोरों, कुचाल व परिप्रह) में प्रत्त न होकर नीति-मार्ग व धार्मिक मर्यादा का उडान नहीं करता। एवं जिसके प्रति भप्रिय-टुकवचन कहे जाने पर भी जो कमी थोडा सा भी अप्रिय वचन नहीं बोलता, यह सब सजन पुरुषों का चरित्र है॥१॥ १. दीपचालकार ।। समुपयालंकार । ४. रूपकालंकार। ५, रूपक व श्लेपाळकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy