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________________ इसीय प्राधासः २६8 यस्य म तरुणी मावास्ता स्वतारात् कुलाशाना पास्ति। तस्य कर्य मनुखक्ष्मीभवति मुस्तव नृपामास्यात् ॥२०॥ भारतबालकदिनाप्यत्र सिमित्यकाशितम् परविरत: परदाररता पालिसरिनमः : बार बार चिकः प्रम समाप्रभवः २०१७ दोर्जभपहलै महतां पारुष्यहोरप इपयममुगानाम् । कृपति नितान्य मन्त्री भुष तु नाङ्गुष्परिमाणाम् ॥२१॥ करितुरगरधनरोस्करविवारसंहारिताखिलप्राणी । संवरति राष्ट्रमध्ये नादत्ते पादुकायुगलम् ॥२११॥ वलपुलालानि तरोनोग्छसि किल सन्न जीवपीदेति । यम इव स्कोर पुनवविजतापसान् असते ॥२१॥ वास्थ इस जलधिवक्षस्तव विभवे संसत पुष्टः । स यदि परग्नापेक्षा यांजीवेष कोऽपीठ ॥२१३॥ व्रतालपिसकायाचे हुकरं पुष्करी भवेत् । पीमरखेन्म दिवा भुङ्क्ते नक्तं भुक्तिविभाज्यताम् ॥२१५ ।। तपस्विनी स्त्रियाँ भी इसके उपभोग करने के योग्य है |२०७॥ हे राजन् ! जिस 'पामरोदार' नाम के मन्त्री की जान माता, पुत्री व बहिन एवं कुलस्त्री ब्रह्मचर्य नष्ट होने के डर से उसके पास नहीं जाती, लस मन्त्री के पास हे राजन् ! बड़े आश्चर्य की बात है कि आपकी लक्ष्मी वार-पार किसप्रकार से जा रही है ? अर्थात्-बह भापकी राज्य लक्ष्मी को किसप्रकार नहीं भोग रहा है? क्योंकि यह मन्त्री है। अर्थात्-मन्त्री राज्य का स्वामी होने के कारण अपनी लक्ष्मी का उपभोग करता ही है । २०८ ।। राजन् ! 'भरतमाल' नाम के कवि ने भी भाप के मन्त्री के विषय में कुछ निम्नप्रकार प्रकाश डाला है हे राजन् ! आपका ऐसा मन्त्री हुना है, जो दूसरे के धन को अपान करने में अनुरक्त, परस्त्री-लम्पट दूसरों को धोखा देनेवाली आजीषिकापाले व्यवहार से प्रेम करनेवाला तथा निकृष्ट तेलियों के वंश में उत्पन्न हुआ एवं पाप को उत्पन्न करनेवाला है ॥२०६।। हे राजन् ! जो मन्त्री अध परिमाण पृथिवी को तो नहीं खोदता परन्तु दुष्टता (चुगलखोरी) रूपी हलों द्वारा गुरू-श्रादि महापुरुषों के हृदय और निर्दयतारूपी हलों द्वारा सेवकों के हृदय विशेषरूप से विदीर्ण करता है ॥२१॥ हे राजन् ! आपका ऐसा मन्त्री, जिसने हाथी, घोड़े, रथ, और मनुष्य-समूह के विहार द्वारा समस्त पंचेन्द्रिय जीवों को प्रलय ( नाश ) में प्राप्त किया है, समस्त देश के मध्य संचार करता है (अपनी पल्टन के साथ जाता है). तथापि यह लकड़ी की खड़ा नहीं पहिनता ?" ॥२१११! हे राजन् ! जो मन्त्री वृक्षों के पत्र, पुष्प व फल नहीं तोड़ता, क्योंकि उनके तोड़ने में जीयों का घात होता है और पश्चात् समस्त देव, ब्रामण व तपस्वियों को यमराज-सरीखा अपने मुख का मास बनाता है ॥२१२।। हे राजन् ! आपका वह मन्त्री, जो कि धनादि ऐपयों द्वारा उसप्रकार निरन्तर पुष्ट ( शक्तिशाली) हुआ है जिसप्रकार बड़वानलअग्नि समुद्र की जलराशि धारा पुष्ट होती है। यदि वह दूसरे पदार्थों ( शाक-भक्षण या जो-भक्षण) द्वारा सन्तुष्ट होने की इच्छा करने लगे वो इस संसार में कोई प्राणी जीवित नहीं रह सकता ॥२१॥ अफ मन्त्री की कटु आलोचना करता हुआ 'शङ्कनक नाम का गुप्तचर यशोधर महाराज से कहता है कि हे राजन् ! यदि षह (मंत्री) भाप के कहे अनुसार उपवासादि नियमों के पालन करने से क्षीण * 'सुता स्पसा कुलाशना चास्ति' का । परम्लत्रार्थसासिन घटते । म. प्रसोध 'मुता स्वसा वा कुलाश नारास्ति' पाठः । विमर्शः-पथमि मु. प्रतिस्थपाठेऽसवणतिर्घटते परन्तु समोपवाचिनः 'भारा' शब्दस्य त्रिचित्कोशेष्नुपलभ्पमानत्वादे 'भाराद् पूरसमीपयोः' इति कोशानामाण्यावयं पाठोऽस्माभिः संशोधितः परिवर्तितश्व--सम्पादक। १. रूपकालबार । २. माशेपालबार । ३. आति-अलाहार । ४. रूपकालबार । ५. पयोगि-अलाहार । ६. उपमालंकार । ५. उपमालंकार ।
SR No.090545
Book TitleYashstilak Champoo Purva Khand
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorSundarlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages430
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size15 MB
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